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को ‘‘रघुवंश तिलक’’ कहा गया हैं।

जगन्नाथराय प्रशस्ति- उदयपुर (1652 ई.)- यह प्रशस्ति उदयपुर के जगदीश जी के मन्दिर में लगी हुई हैं, इसमें बप्पा से लेकर जगतसिंह तक के मेवाड़ शासकों की उपलब्धियों का वर्णन मिलता है। यह प्रशस्ति हल्दीघाटी के युद्ध का भी उल्लेख करती हैं।

राजप्रशस्ति-

राजसमन्द झील, (1676 ई.) यह प्रशस्ति राजसमन्द झील के उतरी भाग के 9 चैकी पाल पर लिखी हुई है तथा यह प्रशस्ति 25 शिलालेखों पर रणछोड़ भट्ट द्वारा संस्कृत भाषा मे लिखी गई हैं।

यह एशिया की सबसे बड़ी प्रशस्ति है। इस प्रशस्ति में मुगल- मेवाड़ के बीच संधि का उल्लेख है। यह सन्धि जहांगीर व अमरसिंह के मध्य हुई थी।

इस प्रशस्ति में राजसिंह व जगतसिंह की उपलब्धियों का वर्णन हैं। इस प्रशस्ति में राजसिंह के समय का विषद् वर्णन हैं, तथा इस प्रशस्ति में ही उल्लेख है कि राजसमन्द झील का निर्माण अकाल राहत कार्य के लिए हुआ था, जिसका 14 वर्षों में कार्य पूर्ण हुआ।

वैद्यनाथ मन्दिर प्रशस्ति-

सीसाराम गाँव, उदयपुर(1719 ई.)- यह प्रशस्ति पिछोला झील के पास वैद्यनाथ मन्दिर में स्थित हैं, इस प्रशस्ति के अनुसार हारितऋषि के आशिर्वाद से बप्पारावल को राज्य की प्राप्ति हुई थी।

इसकी रचना रूपभट्ट ने की थी, इस प्रशस्ति में संग्रामसिंह द्वितीय तथा मुगल सेनापति रणबाज खाँ के मध्य बाँदनवाड़ के युद्ध का वर्णन हैं।

राजस्थान में कई स्थानों से फारसी भाषा के भी शिलालेख मिले है-

अजमेर का फारसी लेख- अजमेर, (1200 ई.)- यह राजस्थान में फारसी भाषा का सबसे प्राचीन शिलालेख है जो अढ़ाई दिन के झोंपड़े की दीवार पर लगा हुआ हैं।

बरबन्द का लेख- बयाना, भरतपुर (1613 ई.)-इस शिलालेख के अनुसार अकबर की पत्नी (मरियमउज्जमानी) की आज्ञा से अकबर ने यहाँ पर एक बाग व बावड़ी का निर्माण करवाया गया।

पुष्कर का जहांगीरी महल शिलालेख- अजमेर (1615 ई.)

दरगाह बाजार की मस्जिद लेख- अजमेर (1652 ई.) इस शिलालेख के अनुसार मस्जिद का निर्माण प्रसिद्ध संगीतज्ञ तानसेन की पुत्री तिलोकदी ने 1652 ई. में करवाया था।

शांहजहानी मस्जिद शिलालेख- अजमेर (1637 ई.)

कनाती मस्जिद का लेख- नागौर (1641 ई.) इस शिलालेख के अनुसार अनेक चैहान शासक मुसलमान बन गये थे।

मकराना की बावड़ी का लेख- नागौर (1651 ई.) इस शिलालेख से जाति प्रथा का बोध होता हैं।

शांहजहानी दरवाजा का लेख- अजमेर (1654 ई.)

अमरपुर का लेख- नागौर (1655 ई.)

बकालिया का लेख- नागौर (1670 ई.)

जामी मस्जिद का लेख- मेड़ता, नागौर (1807 ई.)

जामा मस्जिद का लेख- भरतपुर (1845 ई.)

राजस्थान राज्य अभिलेखागार की स्थापना जयपुर में 1955 ई. में की गई थी जिसका मुख्यालय 1960 में जयपुर से बीकानेर स्थानान्तरित कर दिया गया था। इस अभिलेखागार में उर्दू व फारसी के अभिलेख स्थित है।

जोधपुर संग्रहालय में मारवाड़ रियासत के पुराने रिकॉर्ड है जिन्हें ‘‘दस्त्री रिकार्ड’’ कहा जाता है। यहाँ पर स्थित अभिलेख 1614 से 1949 ई. के है।

साम्भर की मस्जिद का लेख – जयपुर (1697 ई.) इस शिलालेख के अनुसार औरंगजेब के शासनकाल में एक मन्दिर की जगह शाहसब्ज अली द्वारा यहाँ पर मस्जिद बनाई गई।
ं प्रशस्तिकार, लेखक व उत्कीर्णक के नामों के साथ उनके गुरूओं व पिताओं के नाम भी उत्कीर्ण हैं। इस शिलालेख में चोचिंगदेव चैहान की जानकारी मिलती हैं।

गंभीरी नदी का पुल शिलालेख-

चितौड़ (1267 ई.)- इस शिलालेख का निर्माण खिज्र खां ने करवाया था।

चीरवा का शिलालेख-

उदयपुर (1273 ई.)- यह शिलालेख गुहिलवंश के शासक जैत्रसिंह, तेजसिंह, समरसिंह आदि शासकों के बारे में जानकारी देता है।

इस शिलालेख में टांटेड जाति के तलारक्षों के बारे में जानकारी मिलती हैं, जो नगर के सज्जन व्यक्ति की रक्षा तथा दुष्ट व्यक्ति को दण्ड देते थे।

बीठू का शिलालेख- पाली (1273 ई.)

रसिया की छतरी लेख- चितौड़ दुर्ग (1274 ई.)- इस शिलालेख से गुहिलवंश तथा मेवाड़ की स्थिति व उपज, पक्षियों व वृक्षावली आदि के बारे में जानकारी मिलती हैं।

अचलेश्वर लेख –

सिरोही (1285 ई.)- पद्यमयी संस्कृत भाषा में रचित यह शिलालेख गुहिल वंश के संस्थापक बप्पा से लेकर समरसिंह की वंशावली के बारे में जानकारी देता है।

इस शिलालेख में मेदपाट का वर्णन करते हुए लिखा गया हैं कि ‘‘ बप्पा द्वारा यहाँ दुर्जनों का संहार हुआ तथा उनकी चर्बी से यहाँ की भूमि गीली हो जाने से इसे मेदपाट कहते है।’’

चितौड़ के जैन कीर्ति स्तम्भ के तीन लेख- चितौड़ (13 वीं सदी)- इन अभिलेखों का स्थापनाकर्ता जीजा था।

जावर की प्रशस्ति- उदयपुर (1421 ई.)- इस प्रशस्ति में उस समय की संयुक्त परिवार प्रथा के प्रचलन, धार्मिक कार्यों में सम्पूर्ण परिवार के सम्मिलित होने तथा शिक्षा की स्थिति के बारे में जानकारी मिलती हैं।

माचेड़ी का शिलालेख-

माचेड़ी की बावड़ी, अलवर (1382 ई.)- इस शिलालेख में पहली बार ‘‘बड़गूजर’’ शब्द का प्रयोग हुआ हैं।

श्रृंगी ऋषि शिलालेख-

कैलाशपुरी, उदयपुर (1428 ई.) इस शिलालेख की रचना कवि राजवाणी विलास ने की थी, यह लेख मोकल के समय का हैं जिसने अपनी पत्नी गौरम्बिका की मुक्ति के लिए श्रृंगी ऋषि के पवित्र स्थान पर एक कुण्ड बनवाकर उसकी प्रतिष्ठा स्थापित करवाई।

यह शिलालेख गुहिलवंशीय शासक हम्मीर, क्षेत्रसिंह व मोकल का भी उल्लेख करता हैं। इस शिलालेख में लिखा हुआ है कि राणा लाखा ने त्रिस्थली- काशी, प्रयाग व गया जाने वाले हिन्दुओं से लिए जाने वाले करों को हटवाकर वहाँ पर शिव मन्दिर का निर्माण करवाया था।

समाधीश्वर शिलालेख-

चितौड़गढ़ (1428 ई.)- गुहिलवंश की धर्म स्थापना से सम्बन्धित इस शिलालेख की रचना एकनाथ ने की थी।

इस लेख में हम्मीर का वर्णन करते हुए लिखा गया हैं उसकी तुलना कामदेव, विष्णु, अच्युत, शंकर तथा कर्ण से की गई हैं।

देलवाड़ा का शिलालेख-

सिरोही (1428 ई.)- मेवाड़ी भाषा में लिखित इस शिलालेख में टंक नामक मुद्रा व स्थानीय करों का उल्लेख मिलता हैं।

नागदा का शिलालेख-

उदयपुर (1437 ई.)- समाज में बहुविवाह तथा संयुक्त परिवार जैसी प्रथाओं का उल्लेख इस शिलालेख में हैं।

रणकपुर प्रशस्ति-

पाली (1439 ई.)- इस प्रशस्ति में बप्पारावल से कुम्भा तक के शासकों की उपलब्धियों का वर्णन मिलता हैं, सेठ धरनक शाह तथा उसके शिल्पी देपाक का नाम भी इस प्रशस्ति में उपलब्ध हैं।

इस प्रशस्ति में बप्पा व कालभोज को अलग- अलग बताया हैं। चैमुखा जैन मन्दिर में लगी इस प्रशस्ति की भाषा संस्कृत तथा लिपि देवनागरी हैं।

कुम्भलगढ़ प्रशस्ति-

राजसमन्द (1460 ई.) इस प्रशस्ति को वर्तमान में उदयपुर के संग्रहालय में रखा गया है।

इस प्रशस्ति में बप्पा रावल को ब्राह्मण वंशीय/विप्रवंशीय बताया गया है, तथा मेवाड़ के उद्धारक हम्मीर को इसी प्रशस्ति में ही विषमघाटी पंचानन कहा गया है।

महाराणा कुम्भा की विजयों का विस्तृत रूप से वर्णन इसी प्रशस्ति में मिलता है।

कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति-

चितौड़गढ़ (1460 ई.)- इस प्रशस्ति की रचना अत्रि भट्ट ने आरम्भ की तथा इसके पुत्र महेश भट्ट ने पूर्ण की थी। इसे जैन प्रशस्ति भी कहते है।

इस प्रशस्ति में हम्मीर, खेता, मोकल व कुम्भा की उपलब्धियों का वर्णन मिलता हैं। इस प्रशस्ति में कुम्भा की उपाधियां शैलगुरू, राजगुरू, दानगुरू, छापगुरू, हिन्दूसुतारण, राणो रासौ आदि मिलती हैं। कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति में कुम्भा द्वारा रचित ग्रन्थ- संगीतराज, गीत गोविन्द का टीका, चण्डीशतक आदि का उल्लेख मिलता है।

इस प्रशस्ति में कुम्भा द्वारा मण्डौर से हनुमान जी की मूर्ति लाने तथा दुर्ग के मुख्य द्वार पर लगवाने का उल्लेख मिलता हैं। कुम्भा के समय इस प्रशस्ति को 1460 ई. में अंकित किया गया था।

बीका स्मारक शिलालेख-

बीकानेर (1504 ई.) इस शिलालेख में बीका के साथ 3 रानियों के सती होने का उल्लेख है।

बीकानेर प्रशस्ति- जूनागढ़ दुर्ग, बीकानेर (1594 ई.) इस प्रशस्ति को जूनागढ़ के सामने रायसिंह ने अपने मन्त्री कर्मचन्द के निरीक्षण में लगवाया था। इस प्रशस्ति के दोनों ओर जयमल व फता की मूर्तियां लगी हुई है।

आमेर का लेख- जयपुर (1612 ई.) कछवाहा वंश की जानकारी देने वाले इस शिलालेख में कछवाहा वंश के शासकों
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