अंतरराष्ट्रीय योग दिवस 2020
कोरोना वायरस की महामारी ने कई चीजों को प्रभावित किया है. इस बार अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के जगह-जगह होने वाले आयोजन भी फीके रहेंगे. हर साल 21 जून के दिन बड़े-बड़े आयोजन होते थे. इस बार कोरोना वायरस के कारण सोशल डिस्टेंसिंग का ध्यान रखते हुए किसी भी प्रकार का आयोजन नहीं किया जा रहा है.
दुनियाभर में 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाया जाता है. योग के अभ्यास से ना सिर्फ शरीर रोगमुक्त रहता है बल्कि मन को भी शांति मिलती है. हमारी भारतीय संस्कृति का योग अभिन्न हिस्सा रहा है. योग से होने वाले फायदों के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए दुनियाभर में 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाया जाता है.
कोरोना वायरस की महामारी ने कई चीजों को प्रभावित किया है. इस बार अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के जगह-जगह होने वाले आयोजन भी फीके रहेंगे. हर साल 21 जून के दिन बड़े-बड़े आयोजन होते थे. इस बार कोरोना वायरस के कारण सोशल डिस्टेंसिंग का ध्यान रखते हुए किसी भी प्रकार का आयोजन नहीं किया जा रहा है.
प्रधानमंत्री मोदी ने योग पर क्या कहा?
प्रधानमंत्री मोदी ने छठे अंतरराष्ट्रीय योग दिवस की शुभकामनाएं देते हुए कहा कि अंतरराष्ट्रीय योगदिवस का ये दिन एकजुटता का दिन है. ये विश्व बंधुत्व के संदेश का दिन है. पीएम मोदी ने कहा कि बच्चे, बड़े, युवा, परिवार के बुजुर्ग, सभी जब एक साथ योग के माध्यम से जुडते हैं, तो पूरे घर में एक ऊर्जा का संचार होता है.इसलिए, इस बार का योग दिवस, भावनात्मक योग का भी दिन है, हमारी पारिवारिक बॉन्ड को भी बढ़ाने का दिन है.
अंतरराष्ट्रीय योग दिवस 2020 की थीम
संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा कोरोना वायरस की महामारी के चलते इस बार अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की थीम को भी काफी विचार-विमर्श के बाद रखा गया है. कोरोना वायरस से बचे रहने के लिए सोशल डिस्टेंसिंग बहुत महत्वपूर्ण है. यही वजह है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा International Yoga Day 2020 की थीम - "Yoga For Health - Yoga From Home". रखी गई है. इसका मतलब 'सेहत के लिए योग - घर से योग" है.
योग दिवस कैसे मनाया जाता है?
योग प्रशिक्षण कार्यक्रम, शिविर, रिट्रीट, सेमिनार, कार्यशालाएं समूह और जन स्तर पर आयोजित की जाती हैं. लोग समूहों में इकट्ठे होते हैं और विभिन्न आसन और प्राणायाम करते हैं. उन्हें अभ्यास के महत्व और यह इलाज और उपचार में कैसे मदद करता है, इसके बारे में भी जागरूक किया जाता है.
18 हजार फीट की ऊंचाई पर योग
आईटीबीपी के जवानों ने अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के मौके पर लद्दाख में 18 हजार फीट की ऊंचाई पर योग और प्राणायाम किया. लद्दाख में बर्फ से ढकी सफेद जमीन पर आईटीबीपी जवानों के एक दल ने अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के मौके पर योग अभ्यास किया. इन जवानों ने लद्दाख में जिस जगह पर योग किया वहां तापमान जीरो डिग्री से नीचे है.
योग का पहला अंतरराष्ट्रीय दिवस कब मनाया गया था?
योग दिवस दुनियाभर में पहली बार 21 जून 2015 को मनाया गया और तबसे हर साल उस दिन को योग दिवस के तौर पर मनाय जाता है लेकिन यह पहला मौका होगा जब इसे डिजिटल तरीके से मनाया जा रहा है. 21 जून 2015 को पहला अंतरराष्ट्रीय योग दिवस दुनिया के करीब 190 देशों ने मनाया था.
21 जून ही क्यों योग उत्सव का दिन चुना गया?
दरअसल उत्तरी गोलाद्र्ध में 21 जून सबसे लंबा दिन होता है. लिहाजा दुनिया के अधिकांश देशों में इस दिन का खासा महत्व है. आध्यात्मिक कार्यों के लिए भी यह दिन अत्यंत लाभकारी है. भारतीय मान्यता के अनुसार आदि योगी शिव ने इसी दिन मनुष्य जाति को योग विज्ञान की शिक्षा देनी शुरू की थी. इसके बाद वे आदि गुरु बने. इसीलिए 21 जून अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में चुना गया है.
योग दिवस के बारे में
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 27 सितम्बर 2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करते हुए 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाये जाने की सिफारिश की गयी थी. इसके उपरांत 11 दिसम्बर 2014 संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा इस प्रस्ताव को पारित करके प्रत्येक वर्ष इस दिन यह दिवस मनाये जाने की घोषणा की गयी. यह प्रस्ताव महासभा द्वारा विश्व स्वास्थ्य और विदेश नीति के तहत पारित किया गया ताकि विश्व भर में लोगों को बेहतर स्वास्थ्य वातावरण प्राप्त हो सके. अमेरिका, कनाडा, चीन एवं मिस्र सहित 177 देशों ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया. Must read all...
कोरोना वायरस की महामारी ने कई चीजों को प्रभावित किया है. इस बार अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के जगह-जगह होने वाले आयोजन भी फीके रहेंगे. हर साल 21 जून के दिन बड़े-बड़े आयोजन होते थे. इस बार कोरोना वायरस के कारण सोशल डिस्टेंसिंग का ध्यान रखते हुए किसी भी प्रकार का आयोजन नहीं किया जा रहा है.
दुनियाभर में 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाया जाता है. योग के अभ्यास से ना सिर्फ शरीर रोगमुक्त रहता है बल्कि मन को भी शांति मिलती है. हमारी भारतीय संस्कृति का योग अभिन्न हिस्सा रहा है. योग से होने वाले फायदों के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए दुनियाभर में 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाया जाता है.
कोरोना वायरस की महामारी ने कई चीजों को प्रभावित किया है. इस बार अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के जगह-जगह होने वाले आयोजन भी फीके रहेंगे. हर साल 21 जून के दिन बड़े-बड़े आयोजन होते थे. इस बार कोरोना वायरस के कारण सोशल डिस्टेंसिंग का ध्यान रखते हुए किसी भी प्रकार का आयोजन नहीं किया जा रहा है.
प्रधानमंत्री मोदी ने योग पर क्या कहा?
प्रधानमंत्री मोदी ने छठे अंतरराष्ट्रीय योग दिवस की शुभकामनाएं देते हुए कहा कि अंतरराष्ट्रीय योगदिवस का ये दिन एकजुटता का दिन है. ये विश्व बंधुत्व के संदेश का दिन है. पीएम मोदी ने कहा कि बच्चे, बड़े, युवा, परिवार के बुजुर्ग, सभी जब एक साथ योग के माध्यम से जुडते हैं, तो पूरे घर में एक ऊर्जा का संचार होता है.इसलिए, इस बार का योग दिवस, भावनात्मक योग का भी दिन है, हमारी पारिवारिक बॉन्ड को भी बढ़ाने का दिन है.
अंतरराष्ट्रीय योग दिवस 2020 की थीम
संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा कोरोना वायरस की महामारी के चलते इस बार अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की थीम को भी काफी विचार-विमर्श के बाद रखा गया है. कोरोना वायरस से बचे रहने के लिए सोशल डिस्टेंसिंग बहुत महत्वपूर्ण है. यही वजह है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा International Yoga Day 2020 की थीम - "Yoga For Health - Yoga From Home". रखी गई है. इसका मतलब 'सेहत के लिए योग - घर से योग" है.
योग दिवस कैसे मनाया जाता है?
योग प्रशिक्षण कार्यक्रम, शिविर, रिट्रीट, सेमिनार, कार्यशालाएं समूह और जन स्तर पर आयोजित की जाती हैं. लोग समूहों में इकट्ठे होते हैं और विभिन्न आसन और प्राणायाम करते हैं. उन्हें अभ्यास के महत्व और यह इलाज और उपचार में कैसे मदद करता है, इसके बारे में भी जागरूक किया जाता है.
18 हजार फीट की ऊंचाई पर योग
आईटीबीपी के जवानों ने अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के मौके पर लद्दाख में 18 हजार फीट की ऊंचाई पर योग और प्राणायाम किया. लद्दाख में बर्फ से ढकी सफेद जमीन पर आईटीबीपी जवानों के एक दल ने अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के मौके पर योग अभ्यास किया. इन जवानों ने लद्दाख में जिस जगह पर योग किया वहां तापमान जीरो डिग्री से नीचे है.
योग का पहला अंतरराष्ट्रीय दिवस कब मनाया गया था?
योग दिवस दुनियाभर में पहली बार 21 जून 2015 को मनाया गया और तबसे हर साल उस दिन को योग दिवस के तौर पर मनाय जाता है लेकिन यह पहला मौका होगा जब इसे डिजिटल तरीके से मनाया जा रहा है. 21 जून 2015 को पहला अंतरराष्ट्रीय योग दिवस दुनिया के करीब 190 देशों ने मनाया था.
21 जून ही क्यों योग उत्सव का दिन चुना गया?
दरअसल उत्तरी गोलाद्र्ध में 21 जून सबसे लंबा दिन होता है. लिहाजा दुनिया के अधिकांश देशों में इस दिन का खासा महत्व है. आध्यात्मिक कार्यों के लिए भी यह दिन अत्यंत लाभकारी है. भारतीय मान्यता के अनुसार आदि योगी शिव ने इसी दिन मनुष्य जाति को योग विज्ञान की शिक्षा देनी शुरू की थी. इसके बाद वे आदि गुरु बने. इसीलिए 21 जून अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में चुना गया है.
योग दिवस के बारे में
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 27 सितम्बर 2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करते हुए 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाये जाने की सिफारिश की गयी थी. इसके उपरांत 11 दिसम्बर 2014 संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा इस प्रस्ताव को पारित करके प्रत्येक वर्ष इस दिन यह दिवस मनाये जाने की घोषणा की गयी. यह प्रस्ताव महासभा द्वारा विश्व स्वास्थ्य और विदेश नीति के तहत पारित किया गया ताकि विश्व भर में लोगों को बेहतर स्वास्थ्य वातावरण प्राप्त हो सके. अमेरिका, कनाडा, चीन एवं मिस्र सहित 177 देशों ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया. Must read all...
@mamta_bhupesh मंत्री महोदया जी, कृपया #NTT_भर्ती_2018 के अंतिम रूप से चयनित अभ्यर्थियों की सूची जारी कीजिए
@DeptIcds
@ashokgehlot51
@GovindDotasra
@DeptIcds
@ashokgehlot51
@GovindDotasra
⛱🏖 टॉपिक :-राजस्थान की छतरियां ⛱🏖
गैटोर की छतरियां – नाहरगढ़ (जयपुर) में स्थित है। ये कछवाहा शासको की छतरियां है। जयसिंह द्वितीय से मानसिंह द्वितीय की छतरियां है।
बड़ा बाग की छतरियां- जैसलमेर में स्थित है। – यहां भाटी शासकों की छतरियां स्थित है।
क्षारबाग की छतरियां – कोटा में स्थित है। – यहां हाड़ा शासकों की छतरियां स्थित है।
देवकुण्ड की छतरियां- रिड़मलसर (बीकानेर) में स्थित है। राव बीकाजी व रायसिंह की छतरियां प्रसिद्ध है।
छात्र विलास की छतरी- कोटा में स्थित है।
केसर बाग की छतरी- बूंदी में स्थित है।
जसवंत थड़ा- जोधपुर में स्थित है। सरदार सिंह द्वारा निर्मित है।
रैदास की छतरी- चित्तौड़गढ में स्थित है।
गोपाल सिंह यादव की छतरी- करौली में स्थित है।
08 खम्भों की छतरी- बांडोली (उदयपुर) में स्थित है। यह वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप की छतरी है।
32 खम्भो की छातरी- राजस्थान में दो स्थानों पर 32-32 खम्भों की छतरियां है। मांडल गढ (भीलवाड़ा) में स्थित 32 खम्भों की छतरी का संबंध जगन्नाथ कच्छवाहा से है। रणथम्भौर (सवाई माधोपुर) में स्थित 32 खम्भों की छतरी हम्मीर देव चैहान की छतरी है।
80 खम्भों की छतरी – अलवर में स्थित हैं यह छतरी मूसी महारानी से संबंधित है।
84 खम्भों की छतरी- बूंदी में स्थित है। यह छतरी राजा अनिरूद के माता देव की छतरी है। यह छतरी भगवान शिव को समर्पित है।
16 खम्भों की छतरी – नागौर में स्थित हैं यह अमर सिंह की छतरी है। ये राठौड वंशीय थे।
टंहला की छतरीयां – अलवर में स्थित हैं।
आहड़ की छतरियां – उदयपुर में स्थित हैं इन्हे महासतियां भी कहते है।
राजा बख्तावर सिंह की छतरी- अलवर में स्थित है।
राजा जोधसिंह की छतरी- बदनौर (भीलवाडा) में स्थित है।
मानसिंह प्रथम की छतरी- आमेर (जयपुर) में स्थित है।
06 खम्भों की छतरी- लालसौट (दौसा) में स्थित है।
गोराधाय की छतरी- जोधपुर में स्थित हैं। अजीत सिंह की धाय मां की छतरी है।
➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖@nexamHive
गैटोर की छतरियां – नाहरगढ़ (जयपुर) में स्थित है। ये कछवाहा शासको की छतरियां है। जयसिंह द्वितीय से मानसिंह द्वितीय की छतरियां है।
बड़ा बाग की छतरियां- जैसलमेर में स्थित है। – यहां भाटी शासकों की छतरियां स्थित है।
क्षारबाग की छतरियां – कोटा में स्थित है। – यहां हाड़ा शासकों की छतरियां स्थित है।
देवकुण्ड की छतरियां- रिड़मलसर (बीकानेर) में स्थित है। राव बीकाजी व रायसिंह की छतरियां प्रसिद्ध है।
छात्र विलास की छतरी- कोटा में स्थित है।
केसर बाग की छतरी- बूंदी में स्थित है।
जसवंत थड़ा- जोधपुर में स्थित है। सरदार सिंह द्वारा निर्मित है।
रैदास की छतरी- चित्तौड़गढ में स्थित है।
गोपाल सिंह यादव की छतरी- करौली में स्थित है।
08 खम्भों की छतरी- बांडोली (उदयपुर) में स्थित है। यह वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप की छतरी है।
32 खम्भो की छातरी- राजस्थान में दो स्थानों पर 32-32 खम्भों की छतरियां है। मांडल गढ (भीलवाड़ा) में स्थित 32 खम्भों की छतरी का संबंध जगन्नाथ कच्छवाहा से है। रणथम्भौर (सवाई माधोपुर) में स्थित 32 खम्भों की छतरी हम्मीर देव चैहान की छतरी है।
80 खम्भों की छतरी – अलवर में स्थित हैं यह छतरी मूसी महारानी से संबंधित है।
84 खम्भों की छतरी- बूंदी में स्थित है। यह छतरी राजा अनिरूद के माता देव की छतरी है। यह छतरी भगवान शिव को समर्पित है।
16 खम्भों की छतरी – नागौर में स्थित हैं यह अमर सिंह की छतरी है। ये राठौड वंशीय थे।
टंहला की छतरीयां – अलवर में स्थित हैं।
आहड़ की छतरियां – उदयपुर में स्थित हैं इन्हे महासतियां भी कहते है।
राजा बख्तावर सिंह की छतरी- अलवर में स्थित है।
राजा जोधसिंह की छतरी- बदनौर (भीलवाडा) में स्थित है।
मानसिंह प्रथम की छतरी- आमेर (जयपुर) में स्थित है।
06 खम्भों की छतरी- लालसौट (दौसा) में स्थित है।
गोराधाय की छतरी- जोधपुर में स्थित हैं। अजीत सिंह की धाय मां की छतरी है।
➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖@nexamHive
DOCUMENTS FOR E _ DOSSIER
Photo , signature , aadhar, 10th marksheet, thumb impression, caste certificate ,
Copy of admit card
, NTT diploma
Photo , signature , aadhar, 10th marksheet, thumb impression, caste certificate ,
Copy of admit card
, NTT diploma
Daily Updates By nExamHive pinned «DOCUMENTS FOR E _ DOSSIER Photo , signature , aadhar, 10th marksheet, thumb impression, caste certificate , Copy of admit card , NTT diploma»
राजस्थान के प्रमुख शिलालेख
शिलालेख का अर्थ
शिलालेख/अभिलेख – पत्थर की शिलाओं, दीवारों, स्तंभों आदि पर किसी भी प्रकार की जानकारी लिखी हुई मिलती हैं, उन्हें शिलालेख कहते है। शिलालेख पर किसी शासक की उपलब्धियों का यशोगान मिलता है, तो उसे प्रशस्ति कहते हैं।
भारत में पहली बार शिलालेख
भारत में पहली बार शिलालेख ईरानी राजा दारा प्रथम की प्रेरणा से महान मौर्य शासक अशोक ने लगाये थे। अशोक के शिलालेख एकाष्म थे। अभिलेखों का अध्ययन ’’एपिग्राफिक’’ कहलाता।
भारत में संस्कृत भाषा का प्रथम अभिलेख शक शासक रूद्रदामन का गुजरात से जूनागढ़ अभिलेख मिला है। अशोक के शिलालेखों में चार लिपियां थी – ब्राह्मी, खरोष्ठी, अरेमाईक, यूनानी। राजस्थान के शिलालेखों में संस्कृत व राजस्थानी भाषा मिलती है।
राजस्थान के महत्वपूर्ण इतिहासिक शिलालेख
बुचकला का शिलालेख-
बिलाड़ा, जोधपुर (815 ई.) यह लेख प्रतिहार शासक नागभट्ट द्वितीय का हैं, इस लेख की भाषा संस्कृत तथा लिपी उतर-भारती हैं।
घटियाला शिलालेख-
जोधपुर (861 ई.) यह लेख संस्कृत भाषा में हैं, यह शिलालेख एक जैन मन्दिर के पास हैं जिसे ‘‘माता का साल’’ भी कहते हैं।
राजस्थान में पहली बार सती प्रथा की जानकारी यही शिलालेख देता हैं इस शिलालेख के अनुसार राणुका की पत्नी सम्पल देवी सती हुई थी।
यह शिलालेख कुक्कुक प्रतिहार की जानकारी देता हैं। इस शिलालेख का लेखक मग तथा उत्कीर्णकर्ता कृष्णेश्व र हैं।
आदिवराह मन्दिर का लेख-
आहड़, उदयपुर (944 ई.)- ब्राह्मी लिपि में लिखित यह लेख मेवाड़ के शासक भृतहरि द्वितीय की जानकारी देता हैं।
प्रतापगढ़ का शिलालेख-
अग्रवाल की बावड़ी, प्रतापगढ़ (946 ई.)- डॉ. ओझा ने इसको अजमेर संग्रहालय में रखवाया था
इस शिलालेख की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस शिलालेख में संस्कृत भाषा के साथ कुछ प्रचलित देशी भाषाओं का भी उल्लेख हुआ हैं। प्रतिहार वंश के शासकों की नामावली भी इसी शिलालेख में हैं।
यह शिलालेख 10वीं सदी के धार्मिक जीवन, गाँवों की सीमा आदि पर प्रकाश डालता हैं। यह शिलालेख प्रतिहार शासक महेन्द्रदेव की जानकारी देता हैं।
सारणेश्वर/सांडनाथ प्रशस्ति- आहड़, उदयपुर (953 ई.)- इस प्रशस्ति की भाषा संस्कृत तथा लिपि देवनागरी, कायस्थ पाल व वेलाक हैं। इस प्रशस्ति में गुहिल वंश के शासक अल्लट की जानकारी मिलती हैं।
औंसिया का लेख-
जोधपुर (956 ई.)- इस लेख में मानसिंह को भूमि का स्वामी तथा वत्सराज को रिपुओं/शत्रुओं का दमन करने वाला कहा गया हैं।
यह शिलालेख वर्ण व्यवस्था की भी जानकारी देता हैं, इस शिलालेख के अनुसार समाज के प्रमुख 4 वर्ण- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यक तथा शूद्र में विभाजित था।
विशेेेेष तथ्य – वर्ण व्यवस्था की पहली बार जानकारी ऋग्वेद के 10 वें मण्डल के पुरूष सूक्त से मिलती हैं। ऋग्वेद में 10 मण्डल व 1028 सूक्त हैं।
चितौड़ का लेख-
चितौड़ (971 ई.)- इस शिलालेख की एक प्रतिलिपि अहमदाबाद में भारतीय मन्दिर में संग्रहित हैं तथा इस शिलालेख में स्त्रियों का देवालय में प्रवेश निषेध बताया गया हैं।
नाथ प्रशस्ति- एकलिंग जी, कैलाशपुरी, उदयपुर (971 ई.)- इसकी भाषा संस्कृत तथा लिपि देवनागरी हैं, इस प्रशस्ति में मेवाड़ के राजनीतिक व सांस्कृतिक इतिहास का अच्छे से वर्णन मिलता हैं।
हर्षनाथ प्रशस्ति- रैवासा, सीकर (973 ई.)- यह प्रशस्ति चैहान वंश के शासक विग्रहराज के समय की हैं, इस प्रशस्ति के अनुसार हर्ष मन्दिर का निर्माण विग्रहराज के सामन्त अल्लट ने करवाया था। इस प्रशस्ति में वागड़ के लिए वार्गट शब्द का प्रयोग हुआ हैं।
हस्तिकुण्डी शिलालेख-
सिरोही (996 ई.)- यह शिलालेख वर्तमान में अजमेर संग्रहालय में सुरक्षित हैं, तथा इस शिलालेख में संस्कृत में सूर्याचार्य शब्द का प्रयोग हुआ हैं।
अर्थूणा प्रशस्ति- मण्डलेश्वकर मन्दिर, बांसवाड़ा (1079 ई.)- इस प्रशस्ति की रचना विजय ने की थी, इस प्रशस्ति में बागड़ के परमार मालवा के परमार वंशी राजा वाक्पतिराज के दूसरे पुत्र डंवर के वंशज थे और उनके अधिकार में बागड़ तथा छप्पन का प्रदेश था।
जालौर का लेख-
जालौर (1118 ई.)- इस शिलालेख के अनुसार परमारों की उत्पति वशिष्ट मुनि के यज्ञ से हुई तथा परमारों की जालौर शाखा के प्रवर्तक वाक्पतिराज को बताया था।
नाडोल का शिलालेख-
पाली (1141ई.) यह शिलालेख नाडोल के सोमेश्व र के मन्दिर का हैं तथा इस शिलालेख में तत्कालीन राजस्थान की प्रशासनिक व्यवस्था का उल्लेख मिलता हैं।
घाणेराव का शिलालेख-
पाली (1156 ई.) इस शिलालेख में 12 वीं सदी की राजस्थान की स्थिति को दर्शाया गया हैं।
बड़ली का शिलालेख-
अजमेर (443 ई.पू.)- यह राजस्थान का सबसे प्राचीन तथा भारत का प्रियवा शिलालेख के बाद दूसरा सबसे प्राचीन शिलालेख है।
घोसुण्डी शिलालेख-
नगरी, चितौड़गढ़ (द्वितीय शताब्दी ई. पू.) यह ब्राह्मी तथा संस्कृत दोनों भाषाओें में हैं। इसका एक टुकड़ा उदयपुर संग्रहालय में रखा गया है।
राजस्थान मे
शिलालेख का अर्थ
शिलालेख/अभिलेख – पत्थर की शिलाओं, दीवारों, स्तंभों आदि पर किसी भी प्रकार की जानकारी लिखी हुई मिलती हैं, उन्हें शिलालेख कहते है। शिलालेख पर किसी शासक की उपलब्धियों का यशोगान मिलता है, तो उसे प्रशस्ति कहते हैं।
भारत में पहली बार शिलालेख
भारत में पहली बार शिलालेख ईरानी राजा दारा प्रथम की प्रेरणा से महान मौर्य शासक अशोक ने लगाये थे। अशोक के शिलालेख एकाष्म थे। अभिलेखों का अध्ययन ’’एपिग्राफिक’’ कहलाता।
भारत में संस्कृत भाषा का प्रथम अभिलेख शक शासक रूद्रदामन का गुजरात से जूनागढ़ अभिलेख मिला है। अशोक के शिलालेखों में चार लिपियां थी – ब्राह्मी, खरोष्ठी, अरेमाईक, यूनानी। राजस्थान के शिलालेखों में संस्कृत व राजस्थानी भाषा मिलती है।
राजस्थान के महत्वपूर्ण इतिहासिक शिलालेख
बुचकला का शिलालेख-
बिलाड़ा, जोधपुर (815 ई.) यह लेख प्रतिहार शासक नागभट्ट द्वितीय का हैं, इस लेख की भाषा संस्कृत तथा लिपी उतर-भारती हैं।
घटियाला शिलालेख-
जोधपुर (861 ई.) यह लेख संस्कृत भाषा में हैं, यह शिलालेख एक जैन मन्दिर के पास हैं जिसे ‘‘माता का साल’’ भी कहते हैं।
राजस्थान में पहली बार सती प्रथा की जानकारी यही शिलालेख देता हैं इस शिलालेख के अनुसार राणुका की पत्नी सम्पल देवी सती हुई थी।
यह शिलालेख कुक्कुक प्रतिहार की जानकारी देता हैं। इस शिलालेख का लेखक मग तथा उत्कीर्णकर्ता कृष्णेश्व र हैं।
आदिवराह मन्दिर का लेख-
आहड़, उदयपुर (944 ई.)- ब्राह्मी लिपि में लिखित यह लेख मेवाड़ के शासक भृतहरि द्वितीय की जानकारी देता हैं।
प्रतापगढ़ का शिलालेख-
अग्रवाल की बावड़ी, प्रतापगढ़ (946 ई.)- डॉ. ओझा ने इसको अजमेर संग्रहालय में रखवाया था
इस शिलालेख की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस शिलालेख में संस्कृत भाषा के साथ कुछ प्रचलित देशी भाषाओं का भी उल्लेख हुआ हैं। प्रतिहार वंश के शासकों की नामावली भी इसी शिलालेख में हैं।
यह शिलालेख 10वीं सदी के धार्मिक जीवन, गाँवों की सीमा आदि पर प्रकाश डालता हैं। यह शिलालेख प्रतिहार शासक महेन्द्रदेव की जानकारी देता हैं।
सारणेश्वर/सांडनाथ प्रशस्ति- आहड़, उदयपुर (953 ई.)- इस प्रशस्ति की भाषा संस्कृत तथा लिपि देवनागरी, कायस्थ पाल व वेलाक हैं। इस प्रशस्ति में गुहिल वंश के शासक अल्लट की जानकारी मिलती हैं।
औंसिया का लेख-
जोधपुर (956 ई.)- इस लेख में मानसिंह को भूमि का स्वामी तथा वत्सराज को रिपुओं/शत्रुओं का दमन करने वाला कहा गया हैं।
यह शिलालेख वर्ण व्यवस्था की भी जानकारी देता हैं, इस शिलालेख के अनुसार समाज के प्रमुख 4 वर्ण- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यक तथा शूद्र में विभाजित था।
विशेेेेष तथ्य – वर्ण व्यवस्था की पहली बार जानकारी ऋग्वेद के 10 वें मण्डल के पुरूष सूक्त से मिलती हैं। ऋग्वेद में 10 मण्डल व 1028 सूक्त हैं।
चितौड़ का लेख-
चितौड़ (971 ई.)- इस शिलालेख की एक प्रतिलिपि अहमदाबाद में भारतीय मन्दिर में संग्रहित हैं तथा इस शिलालेख में स्त्रियों का देवालय में प्रवेश निषेध बताया गया हैं।
नाथ प्रशस्ति- एकलिंग जी, कैलाशपुरी, उदयपुर (971 ई.)- इसकी भाषा संस्कृत तथा लिपि देवनागरी हैं, इस प्रशस्ति में मेवाड़ के राजनीतिक व सांस्कृतिक इतिहास का अच्छे से वर्णन मिलता हैं।
हर्षनाथ प्रशस्ति- रैवासा, सीकर (973 ई.)- यह प्रशस्ति चैहान वंश के शासक विग्रहराज के समय की हैं, इस प्रशस्ति के अनुसार हर्ष मन्दिर का निर्माण विग्रहराज के सामन्त अल्लट ने करवाया था। इस प्रशस्ति में वागड़ के लिए वार्गट शब्द का प्रयोग हुआ हैं।
हस्तिकुण्डी शिलालेख-
सिरोही (996 ई.)- यह शिलालेख वर्तमान में अजमेर संग्रहालय में सुरक्षित हैं, तथा इस शिलालेख में संस्कृत में सूर्याचार्य शब्द का प्रयोग हुआ हैं।
अर्थूणा प्रशस्ति- मण्डलेश्वकर मन्दिर, बांसवाड़ा (1079 ई.)- इस प्रशस्ति की रचना विजय ने की थी, इस प्रशस्ति में बागड़ के परमार मालवा के परमार वंशी राजा वाक्पतिराज के दूसरे पुत्र डंवर के वंशज थे और उनके अधिकार में बागड़ तथा छप्पन का प्रदेश था।
जालौर का लेख-
जालौर (1118 ई.)- इस शिलालेख के अनुसार परमारों की उत्पति वशिष्ट मुनि के यज्ञ से हुई तथा परमारों की जालौर शाखा के प्रवर्तक वाक्पतिराज को बताया था।
नाडोल का शिलालेख-
पाली (1141ई.) यह शिलालेख नाडोल के सोमेश्व र के मन्दिर का हैं तथा इस शिलालेख में तत्कालीन राजस्थान की प्रशासनिक व्यवस्था का उल्लेख मिलता हैं।
घाणेराव का शिलालेख-
पाली (1156 ई.) इस शिलालेख में 12 वीं सदी की राजस्थान की स्थिति को दर्शाया गया हैं।
बड़ली का शिलालेख-
अजमेर (443 ई.पू.)- यह राजस्थान का सबसे प्राचीन तथा भारत का प्रियवा शिलालेख के बाद दूसरा सबसे प्राचीन शिलालेख है।
घोसुण्डी शिलालेख-
नगरी, चितौड़गढ़ (द्वितीय शताब्दी ई. पू.) यह ब्राह्मी तथा संस्कृत दोनों भाषाओें में हैं। इसका एक टुकड़ा उदयपुर संग्रहालय में रखा गया है।
राजस्थान मे
वैष्णव सम्प्रदाय का सबसे प्राचीन शिलालेख यही है। इस शिलालेख को सर्वप्रथम डी. आर. भण्डारण द्वारा पढ़ा गया था।
नांदसा यूप- स्तम्भ लेख- नांदसा गाँव, भीलवाड़ा (225 ई.) इस शिलालेख की रचना विक्रम सवंत 282 में चैत्र पूर्णिमा को सोम ने की थी। इस स्तम्भ लेख से उतरी भारत में प्रचलित पौराणिक यज्ञ के बारे जानकारी मिलती है।
बर्नाला यूप स्तम्भ लेख- बर्नाला, जयपुर (227 ई.) इस स्तम्भ लेख को वर्तमान में आमेर संग्रहालय में रखा गया है।
बड़वा स्तम्भ लेख- बड़वा, कोटा (239 ई.) इस स्तम्भ लेख से त्रिरात्र यज्ञों के अप्तोताम यज्ञ का उल्लेख मिलता हैं। अप्तोताम यज्ञ अतिरात होता हैं तथा एक दिन चलने के पश्चात् दूसरे दिन चलता है। बड़वा स्तम्भलेख वैष्णव धर्म तथा यज्ञ महिमा का द्योतक है।
बिचपुरिया स्तम्भ लेख- बिचपुरिया, उणियारा, टोंक (224 ई.) इस लेख से यज्ञानुष्ठान का पता चलता हैं।
विजयगढ़ स्तम्भ लेख- भरतपुर (371 ई.)- इस स्तम्भ लेख से राजा विष्णु वर्धन के पुत्र यशोवर्धन द्वारा यहाँ किये गये पुण्डरीक यज्ञ की जानकारी मिलती है।
नगरी शिलालेख-
चितौड़गढ़, (424 ई.)- यह शिलालेख वर्तमान में अजमेर संग्रहालय में रखा गया हैं यह शिलालेख नगरी का सम्बन्ध विष्णु की पूजा से बताता है।
चितौड़ के 2 खण्ड लेख-
चितौड़दुर्ग, (532 ई.)- यह शिलालेख छठी शताब्दी के प्रारम्भ में मन्दसौर के शासकों का चितौड़ पर अधिकार से सम्बन्धित जानकारी देता हैं।
बसन्तगढ़ लेख-
सिरोही, (625 ई.) – राजा वर्मताल के समय का यह लेख सामन्त प्रथा की जानकारी देता हैं।
सांमोली शिलालेख-
भोमट, उदयपुर (646 ई.) – यह शिलालेख गुहिलवंश के शासक शिलादित्य के समय का हैं, तथा यह शिलालेख शिलादित्य के समय की आर्थिक व राजनीतिक जानकारी देता हैं।
डॉ. ओझा ने इसको अजमेर संग्रहालय में रखवा दिया था, इस शिलालेख की भाषा संस्कृत तथा लिपि कुटिल हैं।
गुहिलादित्य के समय के इस शिलालेख में लिखा गया है कि ‘‘वह शत्रुओं को जीतने वाला, देव ब्राह्मण और गुरूजनों को आनन्द देने वाला और अपने कुलरूपी आकाश का चन्द्रमा राजा शिलादित्य पृथ्वी पर विजयी हो रहा है।’’
इस लेख के अनुसार इसी समय जावर में तांबे व जस्ते की खानों का काम शुरू हुआ तथा जेंतक मेहतर ने अरण्यवासिनी देवी का मन्दिर बनवाया था, जिसे जावर माता का मन्दिर भी कहते हैं।
अपराजित का शिलालेख-
नागदा, उदयपुर (661 ई.) -डॉ. ओझा को यह शिलालेख कुण्डेश्व र मन्दिर में मिला था, जिसको ओझा ने उदयपुर के विक्टोरिया हॉल के संग्रहालय में रखवाया था।
इस लेख में लिखा हुआ है कि अपराजित ने वराहसिंह जैसे शक्तिशाली व्यक्ति को परास्त कर उसे अपना सेनापति बनाया था।
मानमोरी का शिलालेख-
पूठोली, चितौड़ (713 ई.)- यह शिलालेख टॉड को पूठोली में स्थित मानसरोवर झील के पास मिला था, टॉड इस शिलालेख को इंग्लैण्ड ले जा रहा था लेकिन भारी होने के कारण इस शिलालेख को टॉड ने समुद्र में फेंका था।
इस शिलालेख में अमृत मंथन का उल्लेख हैं। इस शिलालेख में चार राजाओं का उल्लेख- महेश्वदर, भीम, भोज तथा मान मिलता हैं।
शंकरघट्टा का शिलालेख-
गंभीरी नदी के पास, चितौड़गढ़ (713 ई.)- यह शिलालेख चितौड़ में सूर्य मन्दिर का उल्लेख करता हैं।
कणसवा का लेख- कणसवा, कोटा (738 ई.)- यह शिलालेख मौर्यवंषी राजा धवल का उल्लेख करता हैं।
चाकसू की प्रशस्ति- जयपुर (813 ई.)- इस शिलालेख में चाकसू में गुहिल वंशीय राजाओं तथा उनकी विजयों का उल्लेख मिलता हैं।
किराड़ू का शिलालेख-
बाड़मेर (1161 ई.) परमार शासकों के वंश क्रम की जानकारी देने वाला यह शिलालेख संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण हैं, तथा इस शिलालेख में परमारों की उत्पति माउण्ट आबू के वशिष्ट मुनि के यज्ञ से बताई गई हैं।
बिजौलिया शिलालेख-
भीलवाड़ा (1170 ई.) बिजौलिया के पाष्र्वनाथ मन्दिर में लगा यह शिलालेख मूलतः दिगम्बर शिलालेख हैं।
इस शिलालेख से साम्भर व अजमेर के चैहान वंश की जानकारी मिलती हैं। बिजौलिया शिलालेख के अनुसार चैहान वंश की उत्पति वत्सगौत्र के ब्राह्मण से हुई। इस शिलालेख में उपरमाल के पठार को उतमाद्रि कहा गया हैं।
इस लेख के लेखक गुणभद्र व कायस्थ है लेकिन इसको पत्थर पर उत्कीर्ण गोविन्द ने किया था। इस शिलालेख के अनुसार साम्भर झील का निर्माण चैहान वंश के संस्थापक वासुदेव ने करवाया था।
लूणवसहि प्रशस्ति-
देलवाड़ा, सिरोही (1230 ई.) संस्कृत भाषा में अंकित इस शिलालेख में आबू के परमार शासकों तथा वास्तुपाल व तेजपाल का वर्णन हैं।
यह लेख हमें तेजपाल ने देलवाड़ा गाँव में लूणवसहि नामक स्थान नेमिनाथ का मन्दिर अपनी पत्नी अनुपमा देवी के श्रेय के लिए बनवाया था, की जानकारी देता हैं।
आबू के शासक धारावर्ष का वर्णन इसी शिलालेख में हैं, इसकी रचना सोमेश्व र ने की थी जबकि उत्कीर्ण चण्डेश्वइर ने किया था।
सुण्डा पर्वत शिलालेख-
जसवन्तपुरा, जालौर (1262 ई.)- यह लेख संस्कृत भाषा में लिखा गया हैं तथा इसकी लिपि देवनागरी हैं।
इस लेख मे
नांदसा यूप- स्तम्भ लेख- नांदसा गाँव, भीलवाड़ा (225 ई.) इस शिलालेख की रचना विक्रम सवंत 282 में चैत्र पूर्णिमा को सोम ने की थी। इस स्तम्भ लेख से उतरी भारत में प्रचलित पौराणिक यज्ञ के बारे जानकारी मिलती है।
बर्नाला यूप स्तम्भ लेख- बर्नाला, जयपुर (227 ई.) इस स्तम्भ लेख को वर्तमान में आमेर संग्रहालय में रखा गया है।
बड़वा स्तम्भ लेख- बड़वा, कोटा (239 ई.) इस स्तम्भ लेख से त्रिरात्र यज्ञों के अप्तोताम यज्ञ का उल्लेख मिलता हैं। अप्तोताम यज्ञ अतिरात होता हैं तथा एक दिन चलने के पश्चात् दूसरे दिन चलता है। बड़वा स्तम्भलेख वैष्णव धर्म तथा यज्ञ महिमा का द्योतक है।
बिचपुरिया स्तम्भ लेख- बिचपुरिया, उणियारा, टोंक (224 ई.) इस लेख से यज्ञानुष्ठान का पता चलता हैं।
विजयगढ़ स्तम्भ लेख- भरतपुर (371 ई.)- इस स्तम्भ लेख से राजा विष्णु वर्धन के पुत्र यशोवर्धन द्वारा यहाँ किये गये पुण्डरीक यज्ञ की जानकारी मिलती है।
नगरी शिलालेख-
चितौड़गढ़, (424 ई.)- यह शिलालेख वर्तमान में अजमेर संग्रहालय में रखा गया हैं यह शिलालेख नगरी का सम्बन्ध विष्णु की पूजा से बताता है।
चितौड़ के 2 खण्ड लेख-
चितौड़दुर्ग, (532 ई.)- यह शिलालेख छठी शताब्दी के प्रारम्भ में मन्दसौर के शासकों का चितौड़ पर अधिकार से सम्बन्धित जानकारी देता हैं।
बसन्तगढ़ लेख-
सिरोही, (625 ई.) – राजा वर्मताल के समय का यह लेख सामन्त प्रथा की जानकारी देता हैं।
सांमोली शिलालेख-
भोमट, उदयपुर (646 ई.) – यह शिलालेख गुहिलवंश के शासक शिलादित्य के समय का हैं, तथा यह शिलालेख शिलादित्य के समय की आर्थिक व राजनीतिक जानकारी देता हैं।
डॉ. ओझा ने इसको अजमेर संग्रहालय में रखवा दिया था, इस शिलालेख की भाषा संस्कृत तथा लिपि कुटिल हैं।
गुहिलादित्य के समय के इस शिलालेख में लिखा गया है कि ‘‘वह शत्रुओं को जीतने वाला, देव ब्राह्मण और गुरूजनों को आनन्द देने वाला और अपने कुलरूपी आकाश का चन्द्रमा राजा शिलादित्य पृथ्वी पर विजयी हो रहा है।’’
इस लेख के अनुसार इसी समय जावर में तांबे व जस्ते की खानों का काम शुरू हुआ तथा जेंतक मेहतर ने अरण्यवासिनी देवी का मन्दिर बनवाया था, जिसे जावर माता का मन्दिर भी कहते हैं।
अपराजित का शिलालेख-
नागदा, उदयपुर (661 ई.) -डॉ. ओझा को यह शिलालेख कुण्डेश्व र मन्दिर में मिला था, जिसको ओझा ने उदयपुर के विक्टोरिया हॉल के संग्रहालय में रखवाया था।
इस लेख में लिखा हुआ है कि अपराजित ने वराहसिंह जैसे शक्तिशाली व्यक्ति को परास्त कर उसे अपना सेनापति बनाया था।
मानमोरी का शिलालेख-
पूठोली, चितौड़ (713 ई.)- यह शिलालेख टॉड को पूठोली में स्थित मानसरोवर झील के पास मिला था, टॉड इस शिलालेख को इंग्लैण्ड ले जा रहा था लेकिन भारी होने के कारण इस शिलालेख को टॉड ने समुद्र में फेंका था।
इस शिलालेख में अमृत मंथन का उल्लेख हैं। इस शिलालेख में चार राजाओं का उल्लेख- महेश्वदर, भीम, भोज तथा मान मिलता हैं।
शंकरघट्टा का शिलालेख-
गंभीरी नदी के पास, चितौड़गढ़ (713 ई.)- यह शिलालेख चितौड़ में सूर्य मन्दिर का उल्लेख करता हैं।
कणसवा का लेख- कणसवा, कोटा (738 ई.)- यह शिलालेख मौर्यवंषी राजा धवल का उल्लेख करता हैं।
चाकसू की प्रशस्ति- जयपुर (813 ई.)- इस शिलालेख में चाकसू में गुहिल वंशीय राजाओं तथा उनकी विजयों का उल्लेख मिलता हैं।
किराड़ू का शिलालेख-
बाड़मेर (1161 ई.) परमार शासकों के वंश क्रम की जानकारी देने वाला यह शिलालेख संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण हैं, तथा इस शिलालेख में परमारों की उत्पति माउण्ट आबू के वशिष्ट मुनि के यज्ञ से बताई गई हैं।
बिजौलिया शिलालेख-
भीलवाड़ा (1170 ई.) बिजौलिया के पाष्र्वनाथ मन्दिर में लगा यह शिलालेख मूलतः दिगम्बर शिलालेख हैं।
इस शिलालेख से साम्भर व अजमेर के चैहान वंश की जानकारी मिलती हैं। बिजौलिया शिलालेख के अनुसार चैहान वंश की उत्पति वत्सगौत्र के ब्राह्मण से हुई। इस शिलालेख में उपरमाल के पठार को उतमाद्रि कहा गया हैं।
इस लेख के लेखक गुणभद्र व कायस्थ है लेकिन इसको पत्थर पर उत्कीर्ण गोविन्द ने किया था। इस शिलालेख के अनुसार साम्भर झील का निर्माण चैहान वंश के संस्थापक वासुदेव ने करवाया था।
लूणवसहि प्रशस्ति-
देलवाड़ा, सिरोही (1230 ई.) संस्कृत भाषा में अंकित इस शिलालेख में आबू के परमार शासकों तथा वास्तुपाल व तेजपाल का वर्णन हैं।
यह लेख हमें तेजपाल ने देलवाड़ा गाँव में लूणवसहि नामक स्थान नेमिनाथ का मन्दिर अपनी पत्नी अनुपमा देवी के श्रेय के लिए बनवाया था, की जानकारी देता हैं।
आबू के शासक धारावर्ष का वर्णन इसी शिलालेख में हैं, इसकी रचना सोमेश्व र ने की थी जबकि उत्कीर्ण चण्डेश्वइर ने किया था।
सुण्डा पर्वत शिलालेख-
जसवन्तपुरा, जालौर (1262 ई.)- यह लेख संस्कृत भाषा में लिखा गया हैं तथा इसकी लिपि देवनागरी हैं।
इस लेख मे
को ‘‘रघुवंश तिलक’’ कहा गया हैं।
जगन्नाथराय प्रशस्ति- उदयपुर (1652 ई.)- यह प्रशस्ति उदयपुर के जगदीश जी के मन्दिर में लगी हुई हैं, इसमें बप्पा से लेकर जगतसिंह तक के मेवाड़ शासकों की उपलब्धियों का वर्णन मिलता है। यह प्रशस्ति हल्दीघाटी के युद्ध का भी उल्लेख करती हैं।
राजप्रशस्ति-
राजसमन्द झील, (1676 ई.) यह प्रशस्ति राजसमन्द झील के उतरी भाग के 9 चैकी पाल पर लिखी हुई है तथा यह प्रशस्ति 25 शिलालेखों पर रणछोड़ भट्ट द्वारा संस्कृत भाषा मे लिखी गई हैं।
यह एशिया की सबसे बड़ी प्रशस्ति है। इस प्रशस्ति में मुगल- मेवाड़ के बीच संधि का उल्लेख है। यह सन्धि जहांगीर व अमरसिंह के मध्य हुई थी।
इस प्रशस्ति में राजसिंह व जगतसिंह की उपलब्धियों का वर्णन हैं। इस प्रशस्ति में राजसिंह के समय का विषद् वर्णन हैं, तथा इस प्रशस्ति में ही उल्लेख है कि राजसमन्द झील का निर्माण अकाल राहत कार्य के लिए हुआ था, जिसका 14 वर्षों में कार्य पूर्ण हुआ।
वैद्यनाथ मन्दिर प्रशस्ति-
सीसाराम गाँव, उदयपुर(1719 ई.)- यह प्रशस्ति पिछोला झील के पास वैद्यनाथ मन्दिर में स्थित हैं, इस प्रशस्ति के अनुसार हारितऋषि के आशिर्वाद से बप्पारावल को राज्य की प्राप्ति हुई थी।
इसकी रचना रूपभट्ट ने की थी, इस प्रशस्ति में संग्रामसिंह द्वितीय तथा मुगल सेनापति रणबाज खाँ के मध्य बाँदनवाड़ के युद्ध का वर्णन हैं।
राजस्थान में कई स्थानों से फारसी भाषा के भी शिलालेख मिले है-
अजमेर का फारसी लेख- अजमेर, (1200 ई.)- यह राजस्थान में फारसी भाषा का सबसे प्राचीन शिलालेख है जो अढ़ाई दिन के झोंपड़े की दीवार पर लगा हुआ हैं।
बरबन्द का लेख- बयाना, भरतपुर (1613 ई.)-इस शिलालेख के अनुसार अकबर की पत्नी (मरियमउज्जमानी) की आज्ञा से अकबर ने यहाँ पर एक बाग व बावड़ी का निर्माण करवाया गया।
पुष्कर का जहांगीरी महल शिलालेख- अजमेर (1615 ई.)
दरगाह बाजार की मस्जिद लेख- अजमेर (1652 ई.) इस शिलालेख के अनुसार मस्जिद का निर्माण प्रसिद्ध संगीतज्ञ तानसेन की पुत्री तिलोकदी ने 1652 ई. में करवाया था।
शांहजहानी मस्जिद शिलालेख- अजमेर (1637 ई.)
कनाती मस्जिद का लेख- नागौर (1641 ई.) इस शिलालेख के अनुसार अनेक चैहान शासक मुसलमान बन गये थे।
मकराना की बावड़ी का लेख- नागौर (1651 ई.) इस शिलालेख से जाति प्रथा का बोध होता हैं।
शांहजहानी दरवाजा का लेख- अजमेर (1654 ई.)
अमरपुर का लेख- नागौर (1655 ई.)
बकालिया का लेख- नागौर (1670 ई.)
जामी मस्जिद का लेख- मेड़ता, नागौर (1807 ई.)
जामा मस्जिद का लेख- भरतपुर (1845 ई.)
राजस्थान राज्य अभिलेखागार की स्थापना जयपुर में 1955 ई. में की गई थी जिसका मुख्यालय 1960 में जयपुर से बीकानेर स्थानान्तरित कर दिया गया था। इस अभिलेखागार में उर्दू व फारसी के अभिलेख स्थित है।
जोधपुर संग्रहालय में मारवाड़ रियासत के पुराने रिकॉर्ड है जिन्हें ‘‘दस्त्री रिकार्ड’’ कहा जाता है। यहाँ पर स्थित अभिलेख 1614 से 1949 ई. के है।
साम्भर की मस्जिद का लेख – जयपुर (1697 ई.) इस शिलालेख के अनुसार औरंगजेब के शासनकाल में एक मन्दिर की जगह शाहसब्ज अली द्वारा यहाँ पर मस्जिद बनाई गई।
जगन्नाथराय प्रशस्ति- उदयपुर (1652 ई.)- यह प्रशस्ति उदयपुर के जगदीश जी के मन्दिर में लगी हुई हैं, इसमें बप्पा से लेकर जगतसिंह तक के मेवाड़ शासकों की उपलब्धियों का वर्णन मिलता है। यह प्रशस्ति हल्दीघाटी के युद्ध का भी उल्लेख करती हैं।
राजप्रशस्ति-
राजसमन्द झील, (1676 ई.) यह प्रशस्ति राजसमन्द झील के उतरी भाग के 9 चैकी पाल पर लिखी हुई है तथा यह प्रशस्ति 25 शिलालेखों पर रणछोड़ भट्ट द्वारा संस्कृत भाषा मे लिखी गई हैं।
यह एशिया की सबसे बड़ी प्रशस्ति है। इस प्रशस्ति में मुगल- मेवाड़ के बीच संधि का उल्लेख है। यह सन्धि जहांगीर व अमरसिंह के मध्य हुई थी।
इस प्रशस्ति में राजसिंह व जगतसिंह की उपलब्धियों का वर्णन हैं। इस प्रशस्ति में राजसिंह के समय का विषद् वर्णन हैं, तथा इस प्रशस्ति में ही उल्लेख है कि राजसमन्द झील का निर्माण अकाल राहत कार्य के लिए हुआ था, जिसका 14 वर्षों में कार्य पूर्ण हुआ।
वैद्यनाथ मन्दिर प्रशस्ति-
सीसाराम गाँव, उदयपुर(1719 ई.)- यह प्रशस्ति पिछोला झील के पास वैद्यनाथ मन्दिर में स्थित हैं, इस प्रशस्ति के अनुसार हारितऋषि के आशिर्वाद से बप्पारावल को राज्य की प्राप्ति हुई थी।
इसकी रचना रूपभट्ट ने की थी, इस प्रशस्ति में संग्रामसिंह द्वितीय तथा मुगल सेनापति रणबाज खाँ के मध्य बाँदनवाड़ के युद्ध का वर्णन हैं।
राजस्थान में कई स्थानों से फारसी भाषा के भी शिलालेख मिले है-
अजमेर का फारसी लेख- अजमेर, (1200 ई.)- यह राजस्थान में फारसी भाषा का सबसे प्राचीन शिलालेख है जो अढ़ाई दिन के झोंपड़े की दीवार पर लगा हुआ हैं।
बरबन्द का लेख- बयाना, भरतपुर (1613 ई.)-इस शिलालेख के अनुसार अकबर की पत्नी (मरियमउज्जमानी) की आज्ञा से अकबर ने यहाँ पर एक बाग व बावड़ी का निर्माण करवाया गया।
पुष्कर का जहांगीरी महल शिलालेख- अजमेर (1615 ई.)
दरगाह बाजार की मस्जिद लेख- अजमेर (1652 ई.) इस शिलालेख के अनुसार मस्जिद का निर्माण प्रसिद्ध संगीतज्ञ तानसेन की पुत्री तिलोकदी ने 1652 ई. में करवाया था।
शांहजहानी मस्जिद शिलालेख- अजमेर (1637 ई.)
कनाती मस्जिद का लेख- नागौर (1641 ई.) इस शिलालेख के अनुसार अनेक चैहान शासक मुसलमान बन गये थे।
मकराना की बावड़ी का लेख- नागौर (1651 ई.) इस शिलालेख से जाति प्रथा का बोध होता हैं।
शांहजहानी दरवाजा का लेख- अजमेर (1654 ई.)
अमरपुर का लेख- नागौर (1655 ई.)
बकालिया का लेख- नागौर (1670 ई.)
जामी मस्जिद का लेख- मेड़ता, नागौर (1807 ई.)
जामा मस्जिद का लेख- भरतपुर (1845 ई.)
राजस्थान राज्य अभिलेखागार की स्थापना जयपुर में 1955 ई. में की गई थी जिसका मुख्यालय 1960 में जयपुर से बीकानेर स्थानान्तरित कर दिया गया था। इस अभिलेखागार में उर्दू व फारसी के अभिलेख स्थित है।
जोधपुर संग्रहालय में मारवाड़ रियासत के पुराने रिकॉर्ड है जिन्हें ‘‘दस्त्री रिकार्ड’’ कहा जाता है। यहाँ पर स्थित अभिलेख 1614 से 1949 ई. के है।
साम्भर की मस्जिद का लेख – जयपुर (1697 ई.) इस शिलालेख के अनुसार औरंगजेब के शासनकाल में एक मन्दिर की जगह शाहसब्ज अली द्वारा यहाँ पर मस्जिद बनाई गई।
ं प्रशस्तिकार, लेखक व उत्कीर्णक के नामों के साथ उनके गुरूओं व पिताओं के नाम भी उत्कीर्ण हैं। इस शिलालेख में चोचिंगदेव चैहान की जानकारी मिलती हैं।
गंभीरी नदी का पुल शिलालेख-
चितौड़ (1267 ई.)- इस शिलालेख का निर्माण खिज्र खां ने करवाया था।
चीरवा का शिलालेख-
उदयपुर (1273 ई.)- यह शिलालेख गुहिलवंश के शासक जैत्रसिंह, तेजसिंह, समरसिंह आदि शासकों के बारे में जानकारी देता है।
इस शिलालेख में टांटेड जाति के तलारक्षों के बारे में जानकारी मिलती हैं, जो नगर के सज्जन व्यक्ति की रक्षा तथा दुष्ट व्यक्ति को दण्ड देते थे।
बीठू का शिलालेख- पाली (1273 ई.)
रसिया की छतरी लेख- चितौड़ दुर्ग (1274 ई.)- इस शिलालेख से गुहिलवंश तथा मेवाड़ की स्थिति व उपज, पक्षियों व वृक्षावली आदि के बारे में जानकारी मिलती हैं।
अचलेश्वर लेख –
सिरोही (1285 ई.)- पद्यमयी संस्कृत भाषा में रचित यह शिलालेख गुहिल वंश के संस्थापक बप्पा से लेकर समरसिंह की वंशावली के बारे में जानकारी देता है।
इस शिलालेख में मेदपाट का वर्णन करते हुए लिखा गया हैं कि ‘‘ बप्पा द्वारा यहाँ दुर्जनों का संहार हुआ तथा उनकी चर्बी से यहाँ की भूमि गीली हो जाने से इसे मेदपाट कहते है।’’
चितौड़ के जैन कीर्ति स्तम्भ के तीन लेख- चितौड़ (13 वीं सदी)- इन अभिलेखों का स्थापनाकर्ता जीजा था।
जावर की प्रशस्ति- उदयपुर (1421 ई.)- इस प्रशस्ति में उस समय की संयुक्त परिवार प्रथा के प्रचलन, धार्मिक कार्यों में सम्पूर्ण परिवार के सम्मिलित होने तथा शिक्षा की स्थिति के बारे में जानकारी मिलती हैं।
माचेड़ी का शिलालेख-
माचेड़ी की बावड़ी, अलवर (1382 ई.)- इस शिलालेख में पहली बार ‘‘बड़गूजर’’ शब्द का प्रयोग हुआ हैं।
श्रृंगी ऋषि शिलालेख-
कैलाशपुरी, उदयपुर (1428 ई.) इस शिलालेख की रचना कवि राजवाणी विलास ने की थी, यह लेख मोकल के समय का हैं जिसने अपनी पत्नी गौरम्बिका की मुक्ति के लिए श्रृंगी ऋषि के पवित्र स्थान पर एक कुण्ड बनवाकर उसकी प्रतिष्ठा स्थापित करवाई।
यह शिलालेख गुहिलवंशीय शासक हम्मीर, क्षेत्रसिंह व मोकल का भी उल्लेख करता हैं। इस शिलालेख में लिखा हुआ है कि राणा लाखा ने त्रिस्थली- काशी, प्रयाग व गया जाने वाले हिन्दुओं से लिए जाने वाले करों को हटवाकर वहाँ पर शिव मन्दिर का निर्माण करवाया था।
समाधीश्वर शिलालेख-
चितौड़गढ़ (1428 ई.)- गुहिलवंश की धर्म स्थापना से सम्बन्धित इस शिलालेख की रचना एकनाथ ने की थी।
इस लेख में हम्मीर का वर्णन करते हुए लिखा गया हैं उसकी तुलना कामदेव, विष्णु, अच्युत, शंकर तथा कर्ण से की गई हैं।
देलवाड़ा का शिलालेख-
सिरोही (1428 ई.)- मेवाड़ी भाषा में लिखित इस शिलालेख में टंक नामक मुद्रा व स्थानीय करों का उल्लेख मिलता हैं।
नागदा का शिलालेख-
उदयपुर (1437 ई.)- समाज में बहुविवाह तथा संयुक्त परिवार जैसी प्रथाओं का उल्लेख इस शिलालेख में हैं।
रणकपुर प्रशस्ति-
पाली (1439 ई.)- इस प्रशस्ति में बप्पारावल से कुम्भा तक के शासकों की उपलब्धियों का वर्णन मिलता हैं, सेठ धरनक शाह तथा उसके शिल्पी देपाक का नाम भी इस प्रशस्ति में उपलब्ध हैं।
इस प्रशस्ति में बप्पा व कालभोज को अलग- अलग बताया हैं। चैमुखा जैन मन्दिर में लगी इस प्रशस्ति की भाषा संस्कृत तथा लिपि देवनागरी हैं।
कुम्भलगढ़ प्रशस्ति-
राजसमन्द (1460 ई.) इस प्रशस्ति को वर्तमान में उदयपुर के संग्रहालय में रखा गया है।
इस प्रशस्ति में बप्पा रावल को ब्राह्मण वंशीय/विप्रवंशीय बताया गया है, तथा मेवाड़ के उद्धारक हम्मीर को इसी प्रशस्ति में ही विषमघाटी पंचानन कहा गया है।
महाराणा कुम्भा की विजयों का विस्तृत रूप से वर्णन इसी प्रशस्ति में मिलता है।
कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति-
चितौड़गढ़ (1460 ई.)- इस प्रशस्ति की रचना अत्रि भट्ट ने आरम्भ की तथा इसके पुत्र महेश भट्ट ने पूर्ण की थी। इसे जैन प्रशस्ति भी कहते है।
इस प्रशस्ति में हम्मीर, खेता, मोकल व कुम्भा की उपलब्धियों का वर्णन मिलता हैं। इस प्रशस्ति में कुम्भा की उपाधियां शैलगुरू, राजगुरू, दानगुरू, छापगुरू, हिन्दूसुतारण, राणो रासौ आदि मिलती हैं। कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति में कुम्भा द्वारा रचित ग्रन्थ- संगीतराज, गीत गोविन्द का टीका, चण्डीशतक आदि का उल्लेख मिलता है।
इस प्रशस्ति में कुम्भा द्वारा मण्डौर से हनुमान जी की मूर्ति लाने तथा दुर्ग के मुख्य द्वार पर लगवाने का उल्लेख मिलता हैं। कुम्भा के समय इस प्रशस्ति को 1460 ई. में अंकित किया गया था।
बीका स्मारक शिलालेख-
बीकानेर (1504 ई.) इस शिलालेख में बीका के साथ 3 रानियों के सती होने का उल्लेख है।
बीकानेर प्रशस्ति- जूनागढ़ दुर्ग, बीकानेर (1594 ई.) इस प्रशस्ति को जूनागढ़ के सामने रायसिंह ने अपने मन्त्री कर्मचन्द के निरीक्षण में लगवाया था। इस प्रशस्ति के दोनों ओर जयमल व फता की मूर्तियां लगी हुई है।
आमेर का लेख- जयपुर (1612 ई.) कछवाहा वंश की जानकारी देने वाले इस शिलालेख में कछवाहा वंश के शासकों
गंभीरी नदी का पुल शिलालेख-
चितौड़ (1267 ई.)- इस शिलालेख का निर्माण खिज्र खां ने करवाया था।
चीरवा का शिलालेख-
उदयपुर (1273 ई.)- यह शिलालेख गुहिलवंश के शासक जैत्रसिंह, तेजसिंह, समरसिंह आदि शासकों के बारे में जानकारी देता है।
इस शिलालेख में टांटेड जाति के तलारक्षों के बारे में जानकारी मिलती हैं, जो नगर के सज्जन व्यक्ति की रक्षा तथा दुष्ट व्यक्ति को दण्ड देते थे।
बीठू का शिलालेख- पाली (1273 ई.)
रसिया की छतरी लेख- चितौड़ दुर्ग (1274 ई.)- इस शिलालेख से गुहिलवंश तथा मेवाड़ की स्थिति व उपज, पक्षियों व वृक्षावली आदि के बारे में जानकारी मिलती हैं।
अचलेश्वर लेख –
सिरोही (1285 ई.)- पद्यमयी संस्कृत भाषा में रचित यह शिलालेख गुहिल वंश के संस्थापक बप्पा से लेकर समरसिंह की वंशावली के बारे में जानकारी देता है।
इस शिलालेख में मेदपाट का वर्णन करते हुए लिखा गया हैं कि ‘‘ बप्पा द्वारा यहाँ दुर्जनों का संहार हुआ तथा उनकी चर्बी से यहाँ की भूमि गीली हो जाने से इसे मेदपाट कहते है।’’
चितौड़ के जैन कीर्ति स्तम्भ के तीन लेख- चितौड़ (13 वीं सदी)- इन अभिलेखों का स्थापनाकर्ता जीजा था।
जावर की प्रशस्ति- उदयपुर (1421 ई.)- इस प्रशस्ति में उस समय की संयुक्त परिवार प्रथा के प्रचलन, धार्मिक कार्यों में सम्पूर्ण परिवार के सम्मिलित होने तथा शिक्षा की स्थिति के बारे में जानकारी मिलती हैं।
माचेड़ी का शिलालेख-
माचेड़ी की बावड़ी, अलवर (1382 ई.)- इस शिलालेख में पहली बार ‘‘बड़गूजर’’ शब्द का प्रयोग हुआ हैं।
श्रृंगी ऋषि शिलालेख-
कैलाशपुरी, उदयपुर (1428 ई.) इस शिलालेख की रचना कवि राजवाणी विलास ने की थी, यह लेख मोकल के समय का हैं जिसने अपनी पत्नी गौरम्बिका की मुक्ति के लिए श्रृंगी ऋषि के पवित्र स्थान पर एक कुण्ड बनवाकर उसकी प्रतिष्ठा स्थापित करवाई।
यह शिलालेख गुहिलवंशीय शासक हम्मीर, क्षेत्रसिंह व मोकल का भी उल्लेख करता हैं। इस शिलालेख में लिखा हुआ है कि राणा लाखा ने त्रिस्थली- काशी, प्रयाग व गया जाने वाले हिन्दुओं से लिए जाने वाले करों को हटवाकर वहाँ पर शिव मन्दिर का निर्माण करवाया था।
समाधीश्वर शिलालेख-
चितौड़गढ़ (1428 ई.)- गुहिलवंश की धर्म स्थापना से सम्बन्धित इस शिलालेख की रचना एकनाथ ने की थी।
इस लेख में हम्मीर का वर्णन करते हुए लिखा गया हैं उसकी तुलना कामदेव, विष्णु, अच्युत, शंकर तथा कर्ण से की गई हैं।
देलवाड़ा का शिलालेख-
सिरोही (1428 ई.)- मेवाड़ी भाषा में लिखित इस शिलालेख में टंक नामक मुद्रा व स्थानीय करों का उल्लेख मिलता हैं।
नागदा का शिलालेख-
उदयपुर (1437 ई.)- समाज में बहुविवाह तथा संयुक्त परिवार जैसी प्रथाओं का उल्लेख इस शिलालेख में हैं।
रणकपुर प्रशस्ति-
पाली (1439 ई.)- इस प्रशस्ति में बप्पारावल से कुम्भा तक के शासकों की उपलब्धियों का वर्णन मिलता हैं, सेठ धरनक शाह तथा उसके शिल्पी देपाक का नाम भी इस प्रशस्ति में उपलब्ध हैं।
इस प्रशस्ति में बप्पा व कालभोज को अलग- अलग बताया हैं। चैमुखा जैन मन्दिर में लगी इस प्रशस्ति की भाषा संस्कृत तथा लिपि देवनागरी हैं।
कुम्भलगढ़ प्रशस्ति-
राजसमन्द (1460 ई.) इस प्रशस्ति को वर्तमान में उदयपुर के संग्रहालय में रखा गया है।
इस प्रशस्ति में बप्पा रावल को ब्राह्मण वंशीय/विप्रवंशीय बताया गया है, तथा मेवाड़ के उद्धारक हम्मीर को इसी प्रशस्ति में ही विषमघाटी पंचानन कहा गया है।
महाराणा कुम्भा की विजयों का विस्तृत रूप से वर्णन इसी प्रशस्ति में मिलता है।
कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति-
चितौड़गढ़ (1460 ई.)- इस प्रशस्ति की रचना अत्रि भट्ट ने आरम्भ की तथा इसके पुत्र महेश भट्ट ने पूर्ण की थी। इसे जैन प्रशस्ति भी कहते है।
इस प्रशस्ति में हम्मीर, खेता, मोकल व कुम्भा की उपलब्धियों का वर्णन मिलता हैं। इस प्रशस्ति में कुम्भा की उपाधियां शैलगुरू, राजगुरू, दानगुरू, छापगुरू, हिन्दूसुतारण, राणो रासौ आदि मिलती हैं। कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति में कुम्भा द्वारा रचित ग्रन्थ- संगीतराज, गीत गोविन्द का टीका, चण्डीशतक आदि का उल्लेख मिलता है।
इस प्रशस्ति में कुम्भा द्वारा मण्डौर से हनुमान जी की मूर्ति लाने तथा दुर्ग के मुख्य द्वार पर लगवाने का उल्लेख मिलता हैं। कुम्भा के समय इस प्रशस्ति को 1460 ई. में अंकित किया गया था।
बीका स्मारक शिलालेख-
बीकानेर (1504 ई.) इस शिलालेख में बीका के साथ 3 रानियों के सती होने का उल्लेख है।
बीकानेर प्रशस्ति- जूनागढ़ दुर्ग, बीकानेर (1594 ई.) इस प्रशस्ति को जूनागढ़ के सामने रायसिंह ने अपने मन्त्री कर्मचन्द के निरीक्षण में लगवाया था। इस प्रशस्ति के दोनों ओर जयमल व फता की मूर्तियां लगी हुई है।
आमेर का लेख- जयपुर (1612 ई.) कछवाहा वंश की जानकारी देने वाले इस शिलालेख में कछवाहा वंश के शासकों
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