आधुनिक ऐतिहासिक ग्रन्थ एवं इतिहासकार
आधुनिक ऐतिहासिक ग्रन्थ एवं इतिहासकार
1. कर्णल जैम्स टॉड
जैम्स टॉड का जन्म 20 मार्च 1782 को इंग्लैण्ड के इस्लिंगटन नगर में हुआ था।
1798 में टॉड सैनिक के रूप में इण्डिया कम्पनी में सेवा करने लगे।
1817 - 1822 के मध्य ये मेवाड़ व हाड़ौती क्षेत्र में पोलिटिकल एजेन्ट के पद पर रहे।
1818 में कर्णल जैम्स टॉड के सहयोग से मेवाड़ महाराणा भीमसिंह ने अंग्रेजों से सहायक संधि की।
कर्णल टॉड ने घोड़े पर बैठकर राजपूत राज्यों के इतिहास से सम्बन्धित सामग्री जुटाई इसलिए इन्हंे घोड़े वाले बाबा के नाम से भी जाना जाता है।
1829 में उन्होंने अपनी पहली पुस्तक एनाल्स एण्ड एंटीक्विटीज ऑफ राजस्थान लिखी।
उनकी इस पुस्तक का सम्पादन विलियम क्रुक ने किया।
नोट:- कर्णल टॉड की इस पुस्तक को दी सेन्ट्रल एण्ड वेस्टर्न राजपूत स्टेट्स ऑफ इण्डिया भी कहा जाता है।
कर्णल टॉड ने इस पुस्तक में ही राजपूताने के लिए सर्वप्रथम राजस्थान/रायथान /रजवाड़ा आदि शब्दों का प्रयोग किया।
कर्णल टॉड ने इस पुस्तक में लिखा है कि राजस्थान में कोई छोटा सा राज्य भी ऐसा नहीं है जहां थर्मोंपोली जैसी रणभूमि न हो और शायद ही ऐसा कोई नगर मिले जहां लियोनाइडस जैसा वीर पुरूष पैदा नहीं हुआ हो।
नोट:- कर्णल टॉड की इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद डॉ0 गौरीषंकर हीराचन्द ओझा ने किया।
कर्णल टॉड ने इस पुस्तक में राजस्थान के इतिहास का पहली बार विस्तृत एवं वैज्ञानिक विवरण किया इसलिए इन्हें राजस्थान के इतिहास का जनक तथा राजस्थान के इतिहास का पिता या पितामह भी कहते है।
1835 में कर्णल टॉड की मृत्यु हो गई।
इनकी मृत्यु के बाद इनकी पुस्तक पष्चिम भारत की यात्रा/ट्रेवल्स इन सैन्ट्रल एण्ड वेस्टर्न राजपूत स्टेट्स ऑफ इण्डिया 1839 में प्रकाषित हुई।
2. डॉ0 एल0 पी0 टैस्सीटॉरी (लुइजि पियो टैस्सीटॉरी)
इनका जन्म 13 दिसम्बर 1887 को इटली के उदीने गाँव में हुआ।
भाषा शास्त्री तथा लिंग्विस्टिक सर्वे आफ इण्डिया के लेखक जार्ज ग्रियर्सन के निमंत्रण पर टैस्सीटॉरी सर्वप्रथम भारत में 8 अप्रैल 1914 को दिल्ली आए।
दिल्ली से वे राजस्थान में सर्वप्रथम जोधपुर तथा बाद में बीकानेर राज्य में आए।
बीकानेर महाराजा गंगासिंह ने इन्हें चारण साहित्य के सर्वेक्षण एवं संग्रह का कार्य सौंपा।
डॉ0 टैस्सीटॉरी ने राजस्थान चारण साहित्य व ऐतिहासिक सर्वे नामक पुस्तक लिखी।
अपनी कार्यस्थली बीकानेर में ही इन्होंने दूसरा ग्रन्थ पष्चिमी राजस्थानी का व्याकरण लिखा।
बीकानेर में ही 22 नवम्बर 1919 को इनकी मृत्यु हो गई।
बीकानेर में इनका स्मारक बना हुआ है।
3. सूर्यमल मिश्रण
इनका जन्म 1815 में बूंदी में हुआ।
सूर्यमल मिश्रण बूंदी के महाराव रामसिंह के दरबारी कवि थे।
रामसिंह के कहने पर इन्होंने 1840 में वंष भास्कर लिखना शुरू किया लेकिन महाराव से अनबन होने पर इन्होंने इसे बीच में ही छोड़ दिया।
इनके दत्तक पुत्र मुरारीदान ने वंष भास्कर को पूरा किया।
1868 में इनकी मृत्यु हो गई।
सुर्यमल मिश्रण ने निम्न ग्रन्थों की रचना की - वंष भास्कर, वीर सतसई, बलबुद्धि विलास, छन्दो मयूख, रामरंचाट, सती रासौ, धातु रूपावली आदि।
नोट:- वंष भास्कर में बूंदी राज्य का वर्णन तथा वीर सतसई में 1857 की क्रान्ति का वर्णन है।
4. गौरीषंकर हीराचन्द ओझा
इनका जन्म 1863 में सिरोही राज्य के रोहिड़ा गांव में हुआ।
इन्होंने 1911 में सर्वप्रथम सिरोही राज्य का इतिहास तथा बाद में क्रमषः उदयपुर, डूँगरपुर, बांसवाड़ा तथा बीकानेर राज्य का इतिहास लिखा।
इन्हंे प्रथम पूर्ण राजस्थान का इतिहासकार कहा जाता है।
इन्होंने हिन्दी में पहली बार भारतीय प्राचीन लिपि का शास्त्र लिखा था।
1914 में इन्हें रायबहादूर की उपाधि मिली।
17 अप्रैल 1947 को रोहिड़ा गाँव में इनकी मृत्यु हो गई।
5. कविराजा श्यामलदास
इनका जन्म भीलवाड़ा के छालीवाड़ा गाँव में 5 जुलाई 1836 को हुआ।
मेवाड़ महाराणा शम्भूसिंह ने इन्हें उदयपुर राज्य का इतिहास लिखने का कार्य सौंपा।
महाराणा सज्जनसिंह ने इतिहास लेखन हेतु इन्हें एक लाख रूपये का अनुदान दिया।
श्यामलदास ने 1872 - 1892 के मध्य वीर-विनोद नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ लिखा।
महाराणा फतेहसिंह ने इस ग्रन्थ के प्रचलन पर प्रतिबंध लगा दिया।
भारत की ब्रिटिष सरकार ने इन्हें केसर-ए-हिन्द, मेवाड़ के महाराणा सज्जनसिंह ने इन्हें कवि राजा तथा बाद में महामहोपाध्याय की उपाधि से विभूषित किया।
1893 में इनका देहान्त हो गया।
6. मुंषी देवीप्रसाद
इनका जन्म जयपुर में 18 फरवरी 1848 में हुआ।
इन्होंने बाबरनामा, हुँमायूनामा, जहांगीरनामा, औरंगजेबनामा आदि फारसी ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद किया।
इनके द्वा
आधुनिक ऐतिहासिक ग्रन्थ एवं इतिहासकार
1. कर्णल जैम्स टॉड
जैम्स टॉड का जन्म 20 मार्च 1782 को इंग्लैण्ड के इस्लिंगटन नगर में हुआ था।
1798 में टॉड सैनिक के रूप में इण्डिया कम्पनी में सेवा करने लगे।
1817 - 1822 के मध्य ये मेवाड़ व हाड़ौती क्षेत्र में पोलिटिकल एजेन्ट के पद पर रहे।
1818 में कर्णल जैम्स टॉड के सहयोग से मेवाड़ महाराणा भीमसिंह ने अंग्रेजों से सहायक संधि की।
कर्णल टॉड ने घोड़े पर बैठकर राजपूत राज्यों के इतिहास से सम्बन्धित सामग्री जुटाई इसलिए इन्हंे घोड़े वाले बाबा के नाम से भी जाना जाता है।
1829 में उन्होंने अपनी पहली पुस्तक एनाल्स एण्ड एंटीक्विटीज ऑफ राजस्थान लिखी।
उनकी इस पुस्तक का सम्पादन विलियम क्रुक ने किया।
नोट:- कर्णल टॉड की इस पुस्तक को दी सेन्ट्रल एण्ड वेस्टर्न राजपूत स्टेट्स ऑफ इण्डिया भी कहा जाता है।
कर्णल टॉड ने इस पुस्तक में ही राजपूताने के लिए सर्वप्रथम राजस्थान/रायथान /रजवाड़ा आदि शब्दों का प्रयोग किया।
कर्णल टॉड ने इस पुस्तक में लिखा है कि राजस्थान में कोई छोटा सा राज्य भी ऐसा नहीं है जहां थर्मोंपोली जैसी रणभूमि न हो और शायद ही ऐसा कोई नगर मिले जहां लियोनाइडस जैसा वीर पुरूष पैदा नहीं हुआ हो।
नोट:- कर्णल टॉड की इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद डॉ0 गौरीषंकर हीराचन्द ओझा ने किया।
कर्णल टॉड ने इस पुस्तक में राजस्थान के इतिहास का पहली बार विस्तृत एवं वैज्ञानिक विवरण किया इसलिए इन्हें राजस्थान के इतिहास का जनक तथा राजस्थान के इतिहास का पिता या पितामह भी कहते है।
1835 में कर्णल टॉड की मृत्यु हो गई।
इनकी मृत्यु के बाद इनकी पुस्तक पष्चिम भारत की यात्रा/ट्रेवल्स इन सैन्ट्रल एण्ड वेस्टर्न राजपूत स्टेट्स ऑफ इण्डिया 1839 में प्रकाषित हुई।
2. डॉ0 एल0 पी0 टैस्सीटॉरी (लुइजि पियो टैस्सीटॉरी)
इनका जन्म 13 दिसम्बर 1887 को इटली के उदीने गाँव में हुआ।
भाषा शास्त्री तथा लिंग्विस्टिक सर्वे आफ इण्डिया के लेखक जार्ज ग्रियर्सन के निमंत्रण पर टैस्सीटॉरी सर्वप्रथम भारत में 8 अप्रैल 1914 को दिल्ली आए।
दिल्ली से वे राजस्थान में सर्वप्रथम जोधपुर तथा बाद में बीकानेर राज्य में आए।
बीकानेर महाराजा गंगासिंह ने इन्हें चारण साहित्य के सर्वेक्षण एवं संग्रह का कार्य सौंपा।
डॉ0 टैस्सीटॉरी ने राजस्थान चारण साहित्य व ऐतिहासिक सर्वे नामक पुस्तक लिखी।
अपनी कार्यस्थली बीकानेर में ही इन्होंने दूसरा ग्रन्थ पष्चिमी राजस्थानी का व्याकरण लिखा।
बीकानेर में ही 22 नवम्बर 1919 को इनकी मृत्यु हो गई।
बीकानेर में इनका स्मारक बना हुआ है।
3. सूर्यमल मिश्रण
इनका जन्म 1815 में बूंदी में हुआ।
सूर्यमल मिश्रण बूंदी के महाराव रामसिंह के दरबारी कवि थे।
रामसिंह के कहने पर इन्होंने 1840 में वंष भास्कर लिखना शुरू किया लेकिन महाराव से अनबन होने पर इन्होंने इसे बीच में ही छोड़ दिया।
इनके दत्तक पुत्र मुरारीदान ने वंष भास्कर को पूरा किया।
1868 में इनकी मृत्यु हो गई।
सुर्यमल मिश्रण ने निम्न ग्रन्थों की रचना की - वंष भास्कर, वीर सतसई, बलबुद्धि विलास, छन्दो मयूख, रामरंचाट, सती रासौ, धातु रूपावली आदि।
नोट:- वंष भास्कर में बूंदी राज्य का वर्णन तथा वीर सतसई में 1857 की क्रान्ति का वर्णन है।
4. गौरीषंकर हीराचन्द ओझा
इनका जन्म 1863 में सिरोही राज्य के रोहिड़ा गांव में हुआ।
इन्होंने 1911 में सर्वप्रथम सिरोही राज्य का इतिहास तथा बाद में क्रमषः उदयपुर, डूँगरपुर, बांसवाड़ा तथा बीकानेर राज्य का इतिहास लिखा।
इन्हंे प्रथम पूर्ण राजस्थान का इतिहासकार कहा जाता है।
इन्होंने हिन्दी में पहली बार भारतीय प्राचीन लिपि का शास्त्र लिखा था।
1914 में इन्हें रायबहादूर की उपाधि मिली।
17 अप्रैल 1947 को रोहिड़ा गाँव में इनकी मृत्यु हो गई।
5. कविराजा श्यामलदास
इनका जन्म भीलवाड़ा के छालीवाड़ा गाँव में 5 जुलाई 1836 को हुआ।
मेवाड़ महाराणा शम्भूसिंह ने इन्हें उदयपुर राज्य का इतिहास लिखने का कार्य सौंपा।
महाराणा सज्जनसिंह ने इतिहास लेखन हेतु इन्हें एक लाख रूपये का अनुदान दिया।
श्यामलदास ने 1872 - 1892 के मध्य वीर-विनोद नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ लिखा।
महाराणा फतेहसिंह ने इस ग्रन्थ के प्रचलन पर प्रतिबंध लगा दिया।
भारत की ब्रिटिष सरकार ने इन्हें केसर-ए-हिन्द, मेवाड़ के महाराणा सज्जनसिंह ने इन्हें कवि राजा तथा बाद में महामहोपाध्याय की उपाधि से विभूषित किया।
1893 में इनका देहान्त हो गया।
6. मुंषी देवीप्रसाद
इनका जन्म जयपुर में 18 फरवरी 1848 में हुआ।
इन्होंने बाबरनामा, हुँमायूनामा, जहांगीरनामा, औरंगजेबनामा आदि फारसी ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद किया।
इनके द्वा
रा रचित स्वप्न राजस्थान आधुनिक राजपूत शासकोें के चरित्र का विषुद्ध रूप प्रस्तुत करता है।
इन्होंने मारवाड़ का भूगोल नामक ग्रन्थ लिखा।
इन्होंने ही मुहणोत नैणसी को राजपूताने का अबुल फजल तथा बीकानेर के शासक रायसिंह को राजपूताने का कर्ण की संज्ञा दी।
1923 में इनका जोधपुर में देहान्त हो गया।
इन्होंने रायसिंह महोत्सव तथा ज्योतिष रत्नाकर रचनाएंे लिखी।
7. रामनाथ रतनू
इनका जन्म सीकर में 1860 में हुआ।
इन्होंने राजस्थान का इतिहास नामक ऐतिहासिक ग्रन्थ लिखा।
1910 में इनका स्वर्गवास हो गया।
8. जगदीष सिंह गहलोत
इनका जन्म 1903 में हुआ।
इन्होंने तीन खण्डों में राजस्थान का सम्पूर्ण इतिहास लिखा।
1958 में इनका देहान्त हो गया।
9. यादवेन्द्र षर्मा ’चन्द्र’
उपन्यास - हूँ गौरी किण पीवरी, जनानी ड्योढ़ी, हजार घोड़ों का सवार
नाटक - तास रो घर
कहानी - जमारो
10. रांगेय राघव
उपन्यास - धरौंदे, मुर्दों का टीला, कब तक पुकारूँ, आज की आवाज
11. मणि मधुकर
उपन्यास - पगफैरों, सुधि सपनों के तीर
नाटक - रसगंधर्व, खेला पालमपुर
12. विजयदान देथा (बिज्जी)
उपन्यास - तीड़ो राव, मां रौ बादलौ
कहानी - अलेखूँ, हिटलर, बातां री फुलवारी
13. षिवचन्द भरतिया
उपन्यास - कनक सुन्दर (राजस्थानी भाषा का प्रथम उपन्यास)
नाटक - केसर विलास (राजस्थानी भाषा का प्रथम नाटक)
14. श्री लाल नथमल जोषी
उपन्यास - आभैपटकी, एक बीणनी दो बींद
15. लक्ष्मी कुमारी चुँड़ावत
कहानी - मँझली रात, मूमल, बाघो भारमली
16. कन्हैयालाल सेठिया
पातल और पीथल, धरती धोरां री, लीलटांस
17. मेघराज मुकुल - सैनाणी, धरती रो सिणगार
18. चन्द्रसिंह बिरकाली - बादली, लू
19. सीताराम लालस - राजस्थानी शब्द कोष
20. हरिराम मीणा - हाँ, चाँद मेरा है
अन्य रचनाएँ
खुमाण रासौ - दलपत विजय
विजयपाल रासौ - नल्लसिंह भाट
ढोला मारू रा दूहा - कवि कल्लोल
हाला-झालां री कुण्डलियाँ - ईसरदास बारहठ
रूक्मणी हरण, नागदमण - साँयाजी झूला
रामरासौ - माधोदास दधवाडि़या
विरूद्ध छहत्तरी, किरतार बावनी - दूरसाजी आढ़ा
नागर समुच्चय - नागरीदास
शत्रुसाल रासौ - डूँगरसी
सगतसिंह रासौ - गिरधर आसिया
टमरकटूँ - राम निरंजन शर्मा ठिमाऊँ
अर्जुन देव चारण - बोल म्हारी मछली इत्तो पाणी
रणमल छंद - श्रीधर व्यास
राव जैतसी रो छंद - बीठू सूजा
गोरा बादल चरित्र - हेमरत्न सूरि
पिंगल षिरोमणि - कुषललाभ
इन्होंने मारवाड़ का भूगोल नामक ग्रन्थ लिखा।
इन्होंने ही मुहणोत नैणसी को राजपूताने का अबुल फजल तथा बीकानेर के शासक रायसिंह को राजपूताने का कर्ण की संज्ञा दी।
1923 में इनका जोधपुर में देहान्त हो गया।
इन्होंने रायसिंह महोत्सव तथा ज्योतिष रत्नाकर रचनाएंे लिखी।
7. रामनाथ रतनू
इनका जन्म सीकर में 1860 में हुआ।
इन्होंने राजस्थान का इतिहास नामक ऐतिहासिक ग्रन्थ लिखा।
1910 में इनका स्वर्गवास हो गया।
8. जगदीष सिंह गहलोत
इनका जन्म 1903 में हुआ।
इन्होंने तीन खण्डों में राजस्थान का सम्पूर्ण इतिहास लिखा।
1958 में इनका देहान्त हो गया।
9. यादवेन्द्र षर्मा ’चन्द्र’
उपन्यास - हूँ गौरी किण पीवरी, जनानी ड्योढ़ी, हजार घोड़ों का सवार
नाटक - तास रो घर
कहानी - जमारो
10. रांगेय राघव
उपन्यास - धरौंदे, मुर्दों का टीला, कब तक पुकारूँ, आज की आवाज
11. मणि मधुकर
उपन्यास - पगफैरों, सुधि सपनों के तीर
नाटक - रसगंधर्व, खेला पालमपुर
12. विजयदान देथा (बिज्जी)
उपन्यास - तीड़ो राव, मां रौ बादलौ
कहानी - अलेखूँ, हिटलर, बातां री फुलवारी
13. षिवचन्द भरतिया
उपन्यास - कनक सुन्दर (राजस्थानी भाषा का प्रथम उपन्यास)
नाटक - केसर विलास (राजस्थानी भाषा का प्रथम नाटक)
14. श्री लाल नथमल जोषी
उपन्यास - आभैपटकी, एक बीणनी दो बींद
15. लक्ष्मी कुमारी चुँड़ावत
कहानी - मँझली रात, मूमल, बाघो भारमली
16. कन्हैयालाल सेठिया
पातल और पीथल, धरती धोरां री, लीलटांस
17. मेघराज मुकुल - सैनाणी, धरती रो सिणगार
18. चन्द्रसिंह बिरकाली - बादली, लू
19. सीताराम लालस - राजस्थानी शब्द कोष
20. हरिराम मीणा - हाँ, चाँद मेरा है
अन्य रचनाएँ
खुमाण रासौ - दलपत विजय
विजयपाल रासौ - नल्लसिंह भाट
ढोला मारू रा दूहा - कवि कल्लोल
हाला-झालां री कुण्डलियाँ - ईसरदास बारहठ
रूक्मणी हरण, नागदमण - साँयाजी झूला
रामरासौ - माधोदास दधवाडि़या
विरूद्ध छहत्तरी, किरतार बावनी - दूरसाजी आढ़ा
नागर समुच्चय - नागरीदास
शत्रुसाल रासौ - डूँगरसी
सगतसिंह रासौ - गिरधर आसिया
टमरकटूँ - राम निरंजन शर्मा ठिमाऊँ
अर्जुन देव चारण - बोल म्हारी मछली इत्तो पाणी
रणमल छंद - श्रीधर व्यास
राव जैतसी रो छंद - बीठू सूजा
गोरा बादल चरित्र - हेमरत्न सूरि
पिंगल षिरोमणि - कुषललाभ
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अंतरराष्ट्रीय योग दिवस 2020
कोरोना वायरस की महामारी ने कई चीजों को प्रभावित किया है. इस बार अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के जगह-जगह होने वाले आयोजन भी फीके रहेंगे. हर साल 21 जून के दिन बड़े-बड़े आयोजन होते थे. इस बार कोरोना वायरस के कारण सोशल डिस्टेंसिंग का ध्यान रखते हुए किसी भी प्रकार का आयोजन नहीं किया जा रहा है.
दुनियाभर में 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाया जाता है. योग के अभ्यास से ना सिर्फ शरीर रोगमुक्त रहता है बल्कि मन को भी शांति मिलती है. हमारी भारतीय संस्कृति का योग अभिन्न हिस्सा रहा है. योग से होने वाले फायदों के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए दुनियाभर में 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाया जाता है.
कोरोना वायरस की महामारी ने कई चीजों को प्रभावित किया है. इस बार अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के जगह-जगह होने वाले आयोजन भी फीके रहेंगे. हर साल 21 जून के दिन बड़े-बड़े आयोजन होते थे. इस बार कोरोना वायरस के कारण सोशल डिस्टेंसिंग का ध्यान रखते हुए किसी भी प्रकार का आयोजन नहीं किया जा रहा है.
प्रधानमंत्री मोदी ने योग पर क्या कहा?
प्रधानमंत्री मोदी ने छठे अंतरराष्ट्रीय योग दिवस की शुभकामनाएं देते हुए कहा कि अंतरराष्ट्रीय योगदिवस का ये दिन एकजुटता का दिन है. ये विश्व बंधुत्व के संदेश का दिन है. पीएम मोदी ने कहा कि बच्चे, बड़े, युवा, परिवार के बुजुर्ग, सभी जब एक साथ योग के माध्यम से जुडते हैं, तो पूरे घर में एक ऊर्जा का संचार होता है.इसलिए, इस बार का योग दिवस, भावनात्मक योग का भी दिन है, हमारी पारिवारिक बॉन्ड को भी बढ़ाने का दिन है.
अंतरराष्ट्रीय योग दिवस 2020 की थीम
संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा कोरोना वायरस की महामारी के चलते इस बार अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की थीम को भी काफी विचार-विमर्श के बाद रखा गया है. कोरोना वायरस से बचे रहने के लिए सोशल डिस्टेंसिंग बहुत महत्वपूर्ण है. यही वजह है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा International Yoga Day 2020 की थीम - "Yoga For Health - Yoga From Home". रखी गई है. इसका मतलब 'सेहत के लिए योग - घर से योग" है.
योग दिवस कैसे मनाया जाता है?
योग प्रशिक्षण कार्यक्रम, शिविर, रिट्रीट, सेमिनार, कार्यशालाएं समूह और जन स्तर पर आयोजित की जाती हैं. लोग समूहों में इकट्ठे होते हैं और विभिन्न आसन और प्राणायाम करते हैं. उन्हें अभ्यास के महत्व और यह इलाज और उपचार में कैसे मदद करता है, इसके बारे में भी जागरूक किया जाता है.
18 हजार फीट की ऊंचाई पर योग
आईटीबीपी के जवानों ने अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के मौके पर लद्दाख में 18 हजार फीट की ऊंचाई पर योग और प्राणायाम किया. लद्दाख में बर्फ से ढकी सफेद जमीन पर आईटीबीपी जवानों के एक दल ने अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के मौके पर योग अभ्यास किया. इन जवानों ने लद्दाख में जिस जगह पर योग किया वहां तापमान जीरो डिग्री से नीचे है.
योग का पहला अंतरराष्ट्रीय दिवस कब मनाया गया था?
योग दिवस दुनियाभर में पहली बार 21 जून 2015 को मनाया गया और तबसे हर साल उस दिन को योग दिवस के तौर पर मनाय जाता है लेकिन यह पहला मौका होगा जब इसे डिजिटल तरीके से मनाया जा रहा है. 21 जून 2015 को पहला अंतरराष्ट्रीय योग दिवस दुनिया के करीब 190 देशों ने मनाया था.
21 जून ही क्यों योग उत्सव का दिन चुना गया?
दरअसल उत्तरी गोलाद्र्ध में 21 जून सबसे लंबा दिन होता है. लिहाजा दुनिया के अधिकांश देशों में इस दिन का खासा महत्व है. आध्यात्मिक कार्यों के लिए भी यह दिन अत्यंत लाभकारी है. भारतीय मान्यता के अनुसार आदि योगी शिव ने इसी दिन मनुष्य जाति को योग विज्ञान की शिक्षा देनी शुरू की थी. इसके बाद वे आदि गुरु बने. इसीलिए 21 जून अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में चुना गया है.
योग दिवस के बारे में
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 27 सितम्बर 2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करते हुए 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाये जाने की सिफारिश की गयी थी. इसके उपरांत 11 दिसम्बर 2014 संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा इस प्रस्ताव को पारित करके प्रत्येक वर्ष इस दिन यह दिवस मनाये जाने की घोषणा की गयी. यह प्रस्ताव महासभा द्वारा विश्व स्वास्थ्य और विदेश नीति के तहत पारित किया गया ताकि विश्व भर में लोगों को बेहतर स्वास्थ्य वातावरण प्राप्त हो सके. अमेरिका, कनाडा, चीन एवं मिस्र सहित 177 देशों ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया. Must read all...
कोरोना वायरस की महामारी ने कई चीजों को प्रभावित किया है. इस बार अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के जगह-जगह होने वाले आयोजन भी फीके रहेंगे. हर साल 21 जून के दिन बड़े-बड़े आयोजन होते थे. इस बार कोरोना वायरस के कारण सोशल डिस्टेंसिंग का ध्यान रखते हुए किसी भी प्रकार का आयोजन नहीं किया जा रहा है.
दुनियाभर में 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाया जाता है. योग के अभ्यास से ना सिर्फ शरीर रोगमुक्त रहता है बल्कि मन को भी शांति मिलती है. हमारी भारतीय संस्कृति का योग अभिन्न हिस्सा रहा है. योग से होने वाले फायदों के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए दुनियाभर में 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाया जाता है.
कोरोना वायरस की महामारी ने कई चीजों को प्रभावित किया है. इस बार अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के जगह-जगह होने वाले आयोजन भी फीके रहेंगे. हर साल 21 जून के दिन बड़े-बड़े आयोजन होते थे. इस बार कोरोना वायरस के कारण सोशल डिस्टेंसिंग का ध्यान रखते हुए किसी भी प्रकार का आयोजन नहीं किया जा रहा है.
प्रधानमंत्री मोदी ने योग पर क्या कहा?
प्रधानमंत्री मोदी ने छठे अंतरराष्ट्रीय योग दिवस की शुभकामनाएं देते हुए कहा कि अंतरराष्ट्रीय योगदिवस का ये दिन एकजुटता का दिन है. ये विश्व बंधुत्व के संदेश का दिन है. पीएम मोदी ने कहा कि बच्चे, बड़े, युवा, परिवार के बुजुर्ग, सभी जब एक साथ योग के माध्यम से जुडते हैं, तो पूरे घर में एक ऊर्जा का संचार होता है.इसलिए, इस बार का योग दिवस, भावनात्मक योग का भी दिन है, हमारी पारिवारिक बॉन्ड को भी बढ़ाने का दिन है.
अंतरराष्ट्रीय योग दिवस 2020 की थीम
संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा कोरोना वायरस की महामारी के चलते इस बार अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की थीम को भी काफी विचार-विमर्श के बाद रखा गया है. कोरोना वायरस से बचे रहने के लिए सोशल डिस्टेंसिंग बहुत महत्वपूर्ण है. यही वजह है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा International Yoga Day 2020 की थीम - "Yoga For Health - Yoga From Home". रखी गई है. इसका मतलब 'सेहत के लिए योग - घर से योग" है.
योग दिवस कैसे मनाया जाता है?
योग प्रशिक्षण कार्यक्रम, शिविर, रिट्रीट, सेमिनार, कार्यशालाएं समूह और जन स्तर पर आयोजित की जाती हैं. लोग समूहों में इकट्ठे होते हैं और विभिन्न आसन और प्राणायाम करते हैं. उन्हें अभ्यास के महत्व और यह इलाज और उपचार में कैसे मदद करता है, इसके बारे में भी जागरूक किया जाता है.
18 हजार फीट की ऊंचाई पर योग
आईटीबीपी के जवानों ने अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के मौके पर लद्दाख में 18 हजार फीट की ऊंचाई पर योग और प्राणायाम किया. लद्दाख में बर्फ से ढकी सफेद जमीन पर आईटीबीपी जवानों के एक दल ने अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के मौके पर योग अभ्यास किया. इन जवानों ने लद्दाख में जिस जगह पर योग किया वहां तापमान जीरो डिग्री से नीचे है.
योग का पहला अंतरराष्ट्रीय दिवस कब मनाया गया था?
योग दिवस दुनियाभर में पहली बार 21 जून 2015 को मनाया गया और तबसे हर साल उस दिन को योग दिवस के तौर पर मनाय जाता है लेकिन यह पहला मौका होगा जब इसे डिजिटल तरीके से मनाया जा रहा है. 21 जून 2015 को पहला अंतरराष्ट्रीय योग दिवस दुनिया के करीब 190 देशों ने मनाया था.
21 जून ही क्यों योग उत्सव का दिन चुना गया?
दरअसल उत्तरी गोलाद्र्ध में 21 जून सबसे लंबा दिन होता है. लिहाजा दुनिया के अधिकांश देशों में इस दिन का खासा महत्व है. आध्यात्मिक कार्यों के लिए भी यह दिन अत्यंत लाभकारी है. भारतीय मान्यता के अनुसार आदि योगी शिव ने इसी दिन मनुष्य जाति को योग विज्ञान की शिक्षा देनी शुरू की थी. इसके बाद वे आदि गुरु बने. इसीलिए 21 जून अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में चुना गया है.
योग दिवस के बारे में
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 27 सितम्बर 2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करते हुए 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाये जाने की सिफारिश की गयी थी. इसके उपरांत 11 दिसम्बर 2014 संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा इस प्रस्ताव को पारित करके प्रत्येक वर्ष इस दिन यह दिवस मनाये जाने की घोषणा की गयी. यह प्रस्ताव महासभा द्वारा विश्व स्वास्थ्य और विदेश नीति के तहत पारित किया गया ताकि विश्व भर में लोगों को बेहतर स्वास्थ्य वातावरण प्राप्त हो सके. अमेरिका, कनाडा, चीन एवं मिस्र सहित 177 देशों ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया. Must read all...
@mamta_bhupesh मंत्री महोदया जी, कृपया #NTT_भर्ती_2018 के अंतिम रूप से चयनित अभ्यर्थियों की सूची जारी कीजिए
@DeptIcds
@ashokgehlot51
@GovindDotasra
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⛱🏖 टॉपिक :-राजस्थान की छतरियां ⛱🏖
गैटोर की छतरियां – नाहरगढ़ (जयपुर) में स्थित है। ये कछवाहा शासको की छतरियां है। जयसिंह द्वितीय से मानसिंह द्वितीय की छतरियां है।
बड़ा बाग की छतरियां- जैसलमेर में स्थित है। – यहां भाटी शासकों की छतरियां स्थित है।
क्षारबाग की छतरियां – कोटा में स्थित है। – यहां हाड़ा शासकों की छतरियां स्थित है।
देवकुण्ड की छतरियां- रिड़मलसर (बीकानेर) में स्थित है। राव बीकाजी व रायसिंह की छतरियां प्रसिद्ध है।
छात्र विलास की छतरी- कोटा में स्थित है।
केसर बाग की छतरी- बूंदी में स्थित है।
जसवंत थड़ा- जोधपुर में स्थित है। सरदार सिंह द्वारा निर्मित है।
रैदास की छतरी- चित्तौड़गढ में स्थित है।
गोपाल सिंह यादव की छतरी- करौली में स्थित है।
08 खम्भों की छतरी- बांडोली (उदयपुर) में स्थित है। यह वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप की छतरी है।
32 खम्भो की छातरी- राजस्थान में दो स्थानों पर 32-32 खम्भों की छतरियां है। मांडल गढ (भीलवाड़ा) में स्थित 32 खम्भों की छतरी का संबंध जगन्नाथ कच्छवाहा से है। रणथम्भौर (सवाई माधोपुर) में स्थित 32 खम्भों की छतरी हम्मीर देव चैहान की छतरी है।
80 खम्भों की छतरी – अलवर में स्थित हैं यह छतरी मूसी महारानी से संबंधित है।
84 खम्भों की छतरी- बूंदी में स्थित है। यह छतरी राजा अनिरूद के माता देव की छतरी है। यह छतरी भगवान शिव को समर्पित है।
16 खम्भों की छतरी – नागौर में स्थित हैं यह अमर सिंह की छतरी है। ये राठौड वंशीय थे।
टंहला की छतरीयां – अलवर में स्थित हैं।
आहड़ की छतरियां – उदयपुर में स्थित हैं इन्हे महासतियां भी कहते है।
राजा बख्तावर सिंह की छतरी- अलवर में स्थित है।
राजा जोधसिंह की छतरी- बदनौर (भीलवाडा) में स्थित है।
मानसिंह प्रथम की छतरी- आमेर (जयपुर) में स्थित है।
06 खम्भों की छतरी- लालसौट (दौसा) में स्थित है।
गोराधाय की छतरी- जोधपुर में स्थित हैं। अजीत सिंह की धाय मां की छतरी है।
➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖@nexamHive
गैटोर की छतरियां – नाहरगढ़ (जयपुर) में स्थित है। ये कछवाहा शासको की छतरियां है। जयसिंह द्वितीय से मानसिंह द्वितीय की छतरियां है।
बड़ा बाग की छतरियां- जैसलमेर में स्थित है। – यहां भाटी शासकों की छतरियां स्थित है।
क्षारबाग की छतरियां – कोटा में स्थित है। – यहां हाड़ा शासकों की छतरियां स्थित है।
देवकुण्ड की छतरियां- रिड़मलसर (बीकानेर) में स्थित है। राव बीकाजी व रायसिंह की छतरियां प्रसिद्ध है।
छात्र विलास की छतरी- कोटा में स्थित है।
केसर बाग की छतरी- बूंदी में स्थित है।
जसवंत थड़ा- जोधपुर में स्थित है। सरदार सिंह द्वारा निर्मित है।
रैदास की छतरी- चित्तौड़गढ में स्थित है।
गोपाल सिंह यादव की छतरी- करौली में स्थित है।
08 खम्भों की छतरी- बांडोली (उदयपुर) में स्थित है। यह वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप की छतरी है।
32 खम्भो की छातरी- राजस्थान में दो स्थानों पर 32-32 खम्भों की छतरियां है। मांडल गढ (भीलवाड़ा) में स्थित 32 खम्भों की छतरी का संबंध जगन्नाथ कच्छवाहा से है। रणथम्भौर (सवाई माधोपुर) में स्थित 32 खम्भों की छतरी हम्मीर देव चैहान की छतरी है।
80 खम्भों की छतरी – अलवर में स्थित हैं यह छतरी मूसी महारानी से संबंधित है।
84 खम्भों की छतरी- बूंदी में स्थित है। यह छतरी राजा अनिरूद के माता देव की छतरी है। यह छतरी भगवान शिव को समर्पित है।
16 खम्भों की छतरी – नागौर में स्थित हैं यह अमर सिंह की छतरी है। ये राठौड वंशीय थे।
टंहला की छतरीयां – अलवर में स्थित हैं।
आहड़ की छतरियां – उदयपुर में स्थित हैं इन्हे महासतियां भी कहते है।
राजा बख्तावर सिंह की छतरी- अलवर में स्थित है।
राजा जोधसिंह की छतरी- बदनौर (भीलवाडा) में स्थित है।
मानसिंह प्रथम की छतरी- आमेर (जयपुर) में स्थित है।
06 खम्भों की छतरी- लालसौट (दौसा) में स्थित है।
गोराधाय की छतरी- जोधपुर में स्थित हैं। अजीत सिंह की धाय मां की छतरी है।
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DOCUMENTS FOR E _ DOSSIER
Photo , signature , aadhar, 10th marksheet, thumb impression, caste certificate ,
Copy of admit card
, NTT diploma
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Copy of admit card
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राजस्थान के प्रमुख शिलालेख
शिलालेख का अर्थ
शिलालेख/अभिलेख – पत्थर की शिलाओं, दीवारों, स्तंभों आदि पर किसी भी प्रकार की जानकारी लिखी हुई मिलती हैं, उन्हें शिलालेख कहते है। शिलालेख पर किसी शासक की उपलब्धियों का यशोगान मिलता है, तो उसे प्रशस्ति कहते हैं।
भारत में पहली बार शिलालेख
भारत में पहली बार शिलालेख ईरानी राजा दारा प्रथम की प्रेरणा से महान मौर्य शासक अशोक ने लगाये थे। अशोक के शिलालेख एकाष्म थे। अभिलेखों का अध्ययन ’’एपिग्राफिक’’ कहलाता।
भारत में संस्कृत भाषा का प्रथम अभिलेख शक शासक रूद्रदामन का गुजरात से जूनागढ़ अभिलेख मिला है। अशोक के शिलालेखों में चार लिपियां थी – ब्राह्मी, खरोष्ठी, अरेमाईक, यूनानी। राजस्थान के शिलालेखों में संस्कृत व राजस्थानी भाषा मिलती है।
राजस्थान के महत्वपूर्ण इतिहासिक शिलालेख
बुचकला का शिलालेख-
बिलाड़ा, जोधपुर (815 ई.) यह लेख प्रतिहार शासक नागभट्ट द्वितीय का हैं, इस लेख की भाषा संस्कृत तथा लिपी उतर-भारती हैं।
घटियाला शिलालेख-
जोधपुर (861 ई.) यह लेख संस्कृत भाषा में हैं, यह शिलालेख एक जैन मन्दिर के पास हैं जिसे ‘‘माता का साल’’ भी कहते हैं।
राजस्थान में पहली बार सती प्रथा की जानकारी यही शिलालेख देता हैं इस शिलालेख के अनुसार राणुका की पत्नी सम्पल देवी सती हुई थी।
यह शिलालेख कुक्कुक प्रतिहार की जानकारी देता हैं। इस शिलालेख का लेखक मग तथा उत्कीर्णकर्ता कृष्णेश्व र हैं।
आदिवराह मन्दिर का लेख-
आहड़, उदयपुर (944 ई.)- ब्राह्मी लिपि में लिखित यह लेख मेवाड़ के शासक भृतहरि द्वितीय की जानकारी देता हैं।
प्रतापगढ़ का शिलालेख-
अग्रवाल की बावड़ी, प्रतापगढ़ (946 ई.)- डॉ. ओझा ने इसको अजमेर संग्रहालय में रखवाया था
इस शिलालेख की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस शिलालेख में संस्कृत भाषा के साथ कुछ प्रचलित देशी भाषाओं का भी उल्लेख हुआ हैं। प्रतिहार वंश के शासकों की नामावली भी इसी शिलालेख में हैं।
यह शिलालेख 10वीं सदी के धार्मिक जीवन, गाँवों की सीमा आदि पर प्रकाश डालता हैं। यह शिलालेख प्रतिहार शासक महेन्द्रदेव की जानकारी देता हैं।
सारणेश्वर/सांडनाथ प्रशस्ति- आहड़, उदयपुर (953 ई.)- इस प्रशस्ति की भाषा संस्कृत तथा लिपि देवनागरी, कायस्थ पाल व वेलाक हैं। इस प्रशस्ति में गुहिल वंश के शासक अल्लट की जानकारी मिलती हैं।
औंसिया का लेख-
जोधपुर (956 ई.)- इस लेख में मानसिंह को भूमि का स्वामी तथा वत्सराज को रिपुओं/शत्रुओं का दमन करने वाला कहा गया हैं।
यह शिलालेख वर्ण व्यवस्था की भी जानकारी देता हैं, इस शिलालेख के अनुसार समाज के प्रमुख 4 वर्ण- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यक तथा शूद्र में विभाजित था।
विशेेेेष तथ्य – वर्ण व्यवस्था की पहली बार जानकारी ऋग्वेद के 10 वें मण्डल के पुरूष सूक्त से मिलती हैं। ऋग्वेद में 10 मण्डल व 1028 सूक्त हैं।
चितौड़ का लेख-
चितौड़ (971 ई.)- इस शिलालेख की एक प्रतिलिपि अहमदाबाद में भारतीय मन्दिर में संग्रहित हैं तथा इस शिलालेख में स्त्रियों का देवालय में प्रवेश निषेध बताया गया हैं।
नाथ प्रशस्ति- एकलिंग जी, कैलाशपुरी, उदयपुर (971 ई.)- इसकी भाषा संस्कृत तथा लिपि देवनागरी हैं, इस प्रशस्ति में मेवाड़ के राजनीतिक व सांस्कृतिक इतिहास का अच्छे से वर्णन मिलता हैं।
हर्षनाथ प्रशस्ति- रैवासा, सीकर (973 ई.)- यह प्रशस्ति चैहान वंश के शासक विग्रहराज के समय की हैं, इस प्रशस्ति के अनुसार हर्ष मन्दिर का निर्माण विग्रहराज के सामन्त अल्लट ने करवाया था। इस प्रशस्ति में वागड़ के लिए वार्गट शब्द का प्रयोग हुआ हैं।
हस्तिकुण्डी शिलालेख-
सिरोही (996 ई.)- यह शिलालेख वर्तमान में अजमेर संग्रहालय में सुरक्षित हैं, तथा इस शिलालेख में संस्कृत में सूर्याचार्य शब्द का प्रयोग हुआ हैं।
अर्थूणा प्रशस्ति- मण्डलेश्वकर मन्दिर, बांसवाड़ा (1079 ई.)- इस प्रशस्ति की रचना विजय ने की थी, इस प्रशस्ति में बागड़ के परमार मालवा के परमार वंशी राजा वाक्पतिराज के दूसरे पुत्र डंवर के वंशज थे और उनके अधिकार में बागड़ तथा छप्पन का प्रदेश था।
जालौर का लेख-
जालौर (1118 ई.)- इस शिलालेख के अनुसार परमारों की उत्पति वशिष्ट मुनि के यज्ञ से हुई तथा परमारों की जालौर शाखा के प्रवर्तक वाक्पतिराज को बताया था।
नाडोल का शिलालेख-
पाली (1141ई.) यह शिलालेख नाडोल के सोमेश्व र के मन्दिर का हैं तथा इस शिलालेख में तत्कालीन राजस्थान की प्रशासनिक व्यवस्था का उल्लेख मिलता हैं।
घाणेराव का शिलालेख-
पाली (1156 ई.) इस शिलालेख में 12 वीं सदी की राजस्थान की स्थिति को दर्शाया गया हैं।
बड़ली का शिलालेख-
अजमेर (443 ई.पू.)- यह राजस्थान का सबसे प्राचीन तथा भारत का प्रियवा शिलालेख के बाद दूसरा सबसे प्राचीन शिलालेख है।
घोसुण्डी शिलालेख-
नगरी, चितौड़गढ़ (द्वितीय शताब्दी ई. पू.) यह ब्राह्मी तथा संस्कृत दोनों भाषाओें में हैं। इसका एक टुकड़ा उदयपुर संग्रहालय में रखा गया है।
राजस्थान मे
शिलालेख का अर्थ
शिलालेख/अभिलेख – पत्थर की शिलाओं, दीवारों, स्तंभों आदि पर किसी भी प्रकार की जानकारी लिखी हुई मिलती हैं, उन्हें शिलालेख कहते है। शिलालेख पर किसी शासक की उपलब्धियों का यशोगान मिलता है, तो उसे प्रशस्ति कहते हैं।
भारत में पहली बार शिलालेख
भारत में पहली बार शिलालेख ईरानी राजा दारा प्रथम की प्रेरणा से महान मौर्य शासक अशोक ने लगाये थे। अशोक के शिलालेख एकाष्म थे। अभिलेखों का अध्ययन ’’एपिग्राफिक’’ कहलाता।
भारत में संस्कृत भाषा का प्रथम अभिलेख शक शासक रूद्रदामन का गुजरात से जूनागढ़ अभिलेख मिला है। अशोक के शिलालेखों में चार लिपियां थी – ब्राह्मी, खरोष्ठी, अरेमाईक, यूनानी। राजस्थान के शिलालेखों में संस्कृत व राजस्थानी भाषा मिलती है।
राजस्थान के महत्वपूर्ण इतिहासिक शिलालेख
बुचकला का शिलालेख-
बिलाड़ा, जोधपुर (815 ई.) यह लेख प्रतिहार शासक नागभट्ट द्वितीय का हैं, इस लेख की भाषा संस्कृत तथा लिपी उतर-भारती हैं।
घटियाला शिलालेख-
जोधपुर (861 ई.) यह लेख संस्कृत भाषा में हैं, यह शिलालेख एक जैन मन्दिर के पास हैं जिसे ‘‘माता का साल’’ भी कहते हैं।
राजस्थान में पहली बार सती प्रथा की जानकारी यही शिलालेख देता हैं इस शिलालेख के अनुसार राणुका की पत्नी सम्पल देवी सती हुई थी।
यह शिलालेख कुक्कुक प्रतिहार की जानकारी देता हैं। इस शिलालेख का लेखक मग तथा उत्कीर्णकर्ता कृष्णेश्व र हैं।
आदिवराह मन्दिर का लेख-
आहड़, उदयपुर (944 ई.)- ब्राह्मी लिपि में लिखित यह लेख मेवाड़ के शासक भृतहरि द्वितीय की जानकारी देता हैं।
प्रतापगढ़ का शिलालेख-
अग्रवाल की बावड़ी, प्रतापगढ़ (946 ई.)- डॉ. ओझा ने इसको अजमेर संग्रहालय में रखवाया था
इस शिलालेख की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस शिलालेख में संस्कृत भाषा के साथ कुछ प्रचलित देशी भाषाओं का भी उल्लेख हुआ हैं। प्रतिहार वंश के शासकों की नामावली भी इसी शिलालेख में हैं।
यह शिलालेख 10वीं सदी के धार्मिक जीवन, गाँवों की सीमा आदि पर प्रकाश डालता हैं। यह शिलालेख प्रतिहार शासक महेन्द्रदेव की जानकारी देता हैं।
सारणेश्वर/सांडनाथ प्रशस्ति- आहड़, उदयपुर (953 ई.)- इस प्रशस्ति की भाषा संस्कृत तथा लिपि देवनागरी, कायस्थ पाल व वेलाक हैं। इस प्रशस्ति में गुहिल वंश के शासक अल्लट की जानकारी मिलती हैं।
औंसिया का लेख-
जोधपुर (956 ई.)- इस लेख में मानसिंह को भूमि का स्वामी तथा वत्सराज को रिपुओं/शत्रुओं का दमन करने वाला कहा गया हैं।
यह शिलालेख वर्ण व्यवस्था की भी जानकारी देता हैं, इस शिलालेख के अनुसार समाज के प्रमुख 4 वर्ण- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यक तथा शूद्र में विभाजित था।
विशेेेेष तथ्य – वर्ण व्यवस्था की पहली बार जानकारी ऋग्वेद के 10 वें मण्डल के पुरूष सूक्त से मिलती हैं। ऋग्वेद में 10 मण्डल व 1028 सूक्त हैं।
चितौड़ का लेख-
चितौड़ (971 ई.)- इस शिलालेख की एक प्रतिलिपि अहमदाबाद में भारतीय मन्दिर में संग्रहित हैं तथा इस शिलालेख में स्त्रियों का देवालय में प्रवेश निषेध बताया गया हैं।
नाथ प्रशस्ति- एकलिंग जी, कैलाशपुरी, उदयपुर (971 ई.)- इसकी भाषा संस्कृत तथा लिपि देवनागरी हैं, इस प्रशस्ति में मेवाड़ के राजनीतिक व सांस्कृतिक इतिहास का अच्छे से वर्णन मिलता हैं।
हर्षनाथ प्रशस्ति- रैवासा, सीकर (973 ई.)- यह प्रशस्ति चैहान वंश के शासक विग्रहराज के समय की हैं, इस प्रशस्ति के अनुसार हर्ष मन्दिर का निर्माण विग्रहराज के सामन्त अल्लट ने करवाया था। इस प्रशस्ति में वागड़ के लिए वार्गट शब्द का प्रयोग हुआ हैं।
हस्तिकुण्डी शिलालेख-
सिरोही (996 ई.)- यह शिलालेख वर्तमान में अजमेर संग्रहालय में सुरक्षित हैं, तथा इस शिलालेख में संस्कृत में सूर्याचार्य शब्द का प्रयोग हुआ हैं।
अर्थूणा प्रशस्ति- मण्डलेश्वकर मन्दिर, बांसवाड़ा (1079 ई.)- इस प्रशस्ति की रचना विजय ने की थी, इस प्रशस्ति में बागड़ के परमार मालवा के परमार वंशी राजा वाक्पतिराज के दूसरे पुत्र डंवर के वंशज थे और उनके अधिकार में बागड़ तथा छप्पन का प्रदेश था।
जालौर का लेख-
जालौर (1118 ई.)- इस शिलालेख के अनुसार परमारों की उत्पति वशिष्ट मुनि के यज्ञ से हुई तथा परमारों की जालौर शाखा के प्रवर्तक वाक्पतिराज को बताया था।
नाडोल का शिलालेख-
पाली (1141ई.) यह शिलालेख नाडोल के सोमेश्व र के मन्दिर का हैं तथा इस शिलालेख में तत्कालीन राजस्थान की प्रशासनिक व्यवस्था का उल्लेख मिलता हैं।
घाणेराव का शिलालेख-
पाली (1156 ई.) इस शिलालेख में 12 वीं सदी की राजस्थान की स्थिति को दर्शाया गया हैं।
बड़ली का शिलालेख-
अजमेर (443 ई.पू.)- यह राजस्थान का सबसे प्राचीन तथा भारत का प्रियवा शिलालेख के बाद दूसरा सबसे प्राचीन शिलालेख है।
घोसुण्डी शिलालेख-
नगरी, चितौड़गढ़ (द्वितीय शताब्दी ई. पू.) यह ब्राह्मी तथा संस्कृत दोनों भाषाओें में हैं। इसका एक टुकड़ा उदयपुर संग्रहालय में रखा गया है।
राजस्थान मे
वैष्णव सम्प्रदाय का सबसे प्राचीन शिलालेख यही है। इस शिलालेख को सर्वप्रथम डी. आर. भण्डारण द्वारा पढ़ा गया था।
नांदसा यूप- स्तम्भ लेख- नांदसा गाँव, भीलवाड़ा (225 ई.) इस शिलालेख की रचना विक्रम सवंत 282 में चैत्र पूर्णिमा को सोम ने की थी। इस स्तम्भ लेख से उतरी भारत में प्रचलित पौराणिक यज्ञ के बारे जानकारी मिलती है।
बर्नाला यूप स्तम्भ लेख- बर्नाला, जयपुर (227 ई.) इस स्तम्भ लेख को वर्तमान में आमेर संग्रहालय में रखा गया है।
बड़वा स्तम्भ लेख- बड़वा, कोटा (239 ई.) इस स्तम्भ लेख से त्रिरात्र यज्ञों के अप्तोताम यज्ञ का उल्लेख मिलता हैं। अप्तोताम यज्ञ अतिरात होता हैं तथा एक दिन चलने के पश्चात् दूसरे दिन चलता है। बड़वा स्तम्भलेख वैष्णव धर्म तथा यज्ञ महिमा का द्योतक है।
बिचपुरिया स्तम्भ लेख- बिचपुरिया, उणियारा, टोंक (224 ई.) इस लेख से यज्ञानुष्ठान का पता चलता हैं।
विजयगढ़ स्तम्भ लेख- भरतपुर (371 ई.)- इस स्तम्भ लेख से राजा विष्णु वर्धन के पुत्र यशोवर्धन द्वारा यहाँ किये गये पुण्डरीक यज्ञ की जानकारी मिलती है।
नगरी शिलालेख-
चितौड़गढ़, (424 ई.)- यह शिलालेख वर्तमान में अजमेर संग्रहालय में रखा गया हैं यह शिलालेख नगरी का सम्बन्ध विष्णु की पूजा से बताता है।
चितौड़ के 2 खण्ड लेख-
चितौड़दुर्ग, (532 ई.)- यह शिलालेख छठी शताब्दी के प्रारम्भ में मन्दसौर के शासकों का चितौड़ पर अधिकार से सम्बन्धित जानकारी देता हैं।
बसन्तगढ़ लेख-
सिरोही, (625 ई.) – राजा वर्मताल के समय का यह लेख सामन्त प्रथा की जानकारी देता हैं।
सांमोली शिलालेख-
भोमट, उदयपुर (646 ई.) – यह शिलालेख गुहिलवंश के शासक शिलादित्य के समय का हैं, तथा यह शिलालेख शिलादित्य के समय की आर्थिक व राजनीतिक जानकारी देता हैं।
डॉ. ओझा ने इसको अजमेर संग्रहालय में रखवा दिया था, इस शिलालेख की भाषा संस्कृत तथा लिपि कुटिल हैं।
गुहिलादित्य के समय के इस शिलालेख में लिखा गया है कि ‘‘वह शत्रुओं को जीतने वाला, देव ब्राह्मण और गुरूजनों को आनन्द देने वाला और अपने कुलरूपी आकाश का चन्द्रमा राजा शिलादित्य पृथ्वी पर विजयी हो रहा है।’’
इस लेख के अनुसार इसी समय जावर में तांबे व जस्ते की खानों का काम शुरू हुआ तथा जेंतक मेहतर ने अरण्यवासिनी देवी का मन्दिर बनवाया था, जिसे जावर माता का मन्दिर भी कहते हैं।
अपराजित का शिलालेख-
नागदा, उदयपुर (661 ई.) -डॉ. ओझा को यह शिलालेख कुण्डेश्व र मन्दिर में मिला था, जिसको ओझा ने उदयपुर के विक्टोरिया हॉल के संग्रहालय में रखवाया था।
इस लेख में लिखा हुआ है कि अपराजित ने वराहसिंह जैसे शक्तिशाली व्यक्ति को परास्त कर उसे अपना सेनापति बनाया था।
मानमोरी का शिलालेख-
पूठोली, चितौड़ (713 ई.)- यह शिलालेख टॉड को पूठोली में स्थित मानसरोवर झील के पास मिला था, टॉड इस शिलालेख को इंग्लैण्ड ले जा रहा था लेकिन भारी होने के कारण इस शिलालेख को टॉड ने समुद्र में फेंका था।
इस शिलालेख में अमृत मंथन का उल्लेख हैं। इस शिलालेख में चार राजाओं का उल्लेख- महेश्वदर, भीम, भोज तथा मान मिलता हैं।
शंकरघट्टा का शिलालेख-
गंभीरी नदी के पास, चितौड़गढ़ (713 ई.)- यह शिलालेख चितौड़ में सूर्य मन्दिर का उल्लेख करता हैं।
कणसवा का लेख- कणसवा, कोटा (738 ई.)- यह शिलालेख मौर्यवंषी राजा धवल का उल्लेख करता हैं।
चाकसू की प्रशस्ति- जयपुर (813 ई.)- इस शिलालेख में चाकसू में गुहिल वंशीय राजाओं तथा उनकी विजयों का उल्लेख मिलता हैं।
किराड़ू का शिलालेख-
बाड़मेर (1161 ई.) परमार शासकों के वंश क्रम की जानकारी देने वाला यह शिलालेख संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण हैं, तथा इस शिलालेख में परमारों की उत्पति माउण्ट आबू के वशिष्ट मुनि के यज्ञ से बताई गई हैं।
बिजौलिया शिलालेख-
भीलवाड़ा (1170 ई.) बिजौलिया के पाष्र्वनाथ मन्दिर में लगा यह शिलालेख मूलतः दिगम्बर शिलालेख हैं।
इस शिलालेख से साम्भर व अजमेर के चैहान वंश की जानकारी मिलती हैं। बिजौलिया शिलालेख के अनुसार चैहान वंश की उत्पति वत्सगौत्र के ब्राह्मण से हुई। इस शिलालेख में उपरमाल के पठार को उतमाद्रि कहा गया हैं।
इस लेख के लेखक गुणभद्र व कायस्थ है लेकिन इसको पत्थर पर उत्कीर्ण गोविन्द ने किया था। इस शिलालेख के अनुसार साम्भर झील का निर्माण चैहान वंश के संस्थापक वासुदेव ने करवाया था।
लूणवसहि प्रशस्ति-
देलवाड़ा, सिरोही (1230 ई.) संस्कृत भाषा में अंकित इस शिलालेख में आबू के परमार शासकों तथा वास्तुपाल व तेजपाल का वर्णन हैं।
यह लेख हमें तेजपाल ने देलवाड़ा गाँव में लूणवसहि नामक स्थान नेमिनाथ का मन्दिर अपनी पत्नी अनुपमा देवी के श्रेय के लिए बनवाया था, की जानकारी देता हैं।
आबू के शासक धारावर्ष का वर्णन इसी शिलालेख में हैं, इसकी रचना सोमेश्व र ने की थी जबकि उत्कीर्ण चण्डेश्वइर ने किया था।
सुण्डा पर्वत शिलालेख-
जसवन्तपुरा, जालौर (1262 ई.)- यह लेख संस्कृत भाषा में लिखा गया हैं तथा इसकी लिपि देवनागरी हैं।
इस लेख मे
नांदसा यूप- स्तम्भ लेख- नांदसा गाँव, भीलवाड़ा (225 ई.) इस शिलालेख की रचना विक्रम सवंत 282 में चैत्र पूर्णिमा को सोम ने की थी। इस स्तम्भ लेख से उतरी भारत में प्रचलित पौराणिक यज्ञ के बारे जानकारी मिलती है।
बर्नाला यूप स्तम्भ लेख- बर्नाला, जयपुर (227 ई.) इस स्तम्भ लेख को वर्तमान में आमेर संग्रहालय में रखा गया है।
बड़वा स्तम्भ लेख- बड़वा, कोटा (239 ई.) इस स्तम्भ लेख से त्रिरात्र यज्ञों के अप्तोताम यज्ञ का उल्लेख मिलता हैं। अप्तोताम यज्ञ अतिरात होता हैं तथा एक दिन चलने के पश्चात् दूसरे दिन चलता है। बड़वा स्तम्भलेख वैष्णव धर्म तथा यज्ञ महिमा का द्योतक है।
बिचपुरिया स्तम्भ लेख- बिचपुरिया, उणियारा, टोंक (224 ई.) इस लेख से यज्ञानुष्ठान का पता चलता हैं।
विजयगढ़ स्तम्भ लेख- भरतपुर (371 ई.)- इस स्तम्भ लेख से राजा विष्णु वर्धन के पुत्र यशोवर्धन द्वारा यहाँ किये गये पुण्डरीक यज्ञ की जानकारी मिलती है।
नगरी शिलालेख-
चितौड़गढ़, (424 ई.)- यह शिलालेख वर्तमान में अजमेर संग्रहालय में रखा गया हैं यह शिलालेख नगरी का सम्बन्ध विष्णु की पूजा से बताता है।
चितौड़ के 2 खण्ड लेख-
चितौड़दुर्ग, (532 ई.)- यह शिलालेख छठी शताब्दी के प्रारम्भ में मन्दसौर के शासकों का चितौड़ पर अधिकार से सम्बन्धित जानकारी देता हैं।
बसन्तगढ़ लेख-
सिरोही, (625 ई.) – राजा वर्मताल के समय का यह लेख सामन्त प्रथा की जानकारी देता हैं।
सांमोली शिलालेख-
भोमट, उदयपुर (646 ई.) – यह शिलालेख गुहिलवंश के शासक शिलादित्य के समय का हैं, तथा यह शिलालेख शिलादित्य के समय की आर्थिक व राजनीतिक जानकारी देता हैं।
डॉ. ओझा ने इसको अजमेर संग्रहालय में रखवा दिया था, इस शिलालेख की भाषा संस्कृत तथा लिपि कुटिल हैं।
गुहिलादित्य के समय के इस शिलालेख में लिखा गया है कि ‘‘वह शत्रुओं को जीतने वाला, देव ब्राह्मण और गुरूजनों को आनन्द देने वाला और अपने कुलरूपी आकाश का चन्द्रमा राजा शिलादित्य पृथ्वी पर विजयी हो रहा है।’’
इस लेख के अनुसार इसी समय जावर में तांबे व जस्ते की खानों का काम शुरू हुआ तथा जेंतक मेहतर ने अरण्यवासिनी देवी का मन्दिर बनवाया था, जिसे जावर माता का मन्दिर भी कहते हैं।
अपराजित का शिलालेख-
नागदा, उदयपुर (661 ई.) -डॉ. ओझा को यह शिलालेख कुण्डेश्व र मन्दिर में मिला था, जिसको ओझा ने उदयपुर के विक्टोरिया हॉल के संग्रहालय में रखवाया था।
इस लेख में लिखा हुआ है कि अपराजित ने वराहसिंह जैसे शक्तिशाली व्यक्ति को परास्त कर उसे अपना सेनापति बनाया था।
मानमोरी का शिलालेख-
पूठोली, चितौड़ (713 ई.)- यह शिलालेख टॉड को पूठोली में स्थित मानसरोवर झील के पास मिला था, टॉड इस शिलालेख को इंग्लैण्ड ले जा रहा था लेकिन भारी होने के कारण इस शिलालेख को टॉड ने समुद्र में फेंका था।
इस शिलालेख में अमृत मंथन का उल्लेख हैं। इस शिलालेख में चार राजाओं का उल्लेख- महेश्वदर, भीम, भोज तथा मान मिलता हैं।
शंकरघट्टा का शिलालेख-
गंभीरी नदी के पास, चितौड़गढ़ (713 ई.)- यह शिलालेख चितौड़ में सूर्य मन्दिर का उल्लेख करता हैं।
कणसवा का लेख- कणसवा, कोटा (738 ई.)- यह शिलालेख मौर्यवंषी राजा धवल का उल्लेख करता हैं।
चाकसू की प्रशस्ति- जयपुर (813 ई.)- इस शिलालेख में चाकसू में गुहिल वंशीय राजाओं तथा उनकी विजयों का उल्लेख मिलता हैं।
किराड़ू का शिलालेख-
बाड़मेर (1161 ई.) परमार शासकों के वंश क्रम की जानकारी देने वाला यह शिलालेख संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण हैं, तथा इस शिलालेख में परमारों की उत्पति माउण्ट आबू के वशिष्ट मुनि के यज्ञ से बताई गई हैं।
बिजौलिया शिलालेख-
भीलवाड़ा (1170 ई.) बिजौलिया के पाष्र्वनाथ मन्दिर में लगा यह शिलालेख मूलतः दिगम्बर शिलालेख हैं।
इस शिलालेख से साम्भर व अजमेर के चैहान वंश की जानकारी मिलती हैं। बिजौलिया शिलालेख के अनुसार चैहान वंश की उत्पति वत्सगौत्र के ब्राह्मण से हुई। इस शिलालेख में उपरमाल के पठार को उतमाद्रि कहा गया हैं।
इस लेख के लेखक गुणभद्र व कायस्थ है लेकिन इसको पत्थर पर उत्कीर्ण गोविन्द ने किया था। इस शिलालेख के अनुसार साम्भर झील का निर्माण चैहान वंश के संस्थापक वासुदेव ने करवाया था।
लूणवसहि प्रशस्ति-
देलवाड़ा, सिरोही (1230 ई.) संस्कृत भाषा में अंकित इस शिलालेख में आबू के परमार शासकों तथा वास्तुपाल व तेजपाल का वर्णन हैं।
यह लेख हमें तेजपाल ने देलवाड़ा गाँव में लूणवसहि नामक स्थान नेमिनाथ का मन्दिर अपनी पत्नी अनुपमा देवी के श्रेय के लिए बनवाया था, की जानकारी देता हैं।
आबू के शासक धारावर्ष का वर्णन इसी शिलालेख में हैं, इसकी रचना सोमेश्व र ने की थी जबकि उत्कीर्ण चण्डेश्वइर ने किया था।
सुण्डा पर्वत शिलालेख-
जसवन्तपुरा, जालौर (1262 ई.)- यह लेख संस्कृत भाषा में लिखा गया हैं तथा इसकी लिपि देवनागरी हैं।
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